Sukhi Jeevan Ke Sutra

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Sukhi Jeevan Ke Sutra

Sukhi Jeevan Ke Sutra

100.00 99.00

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Author: Swami Avdheshanand Giri

Availability: 5 in stock

Pages: 176

Year: 2015

Binding: Paperback

ISBN: 9788131008034

Language: Hindi

Publisher: Manoj Publications

Description

दो शब्द

नीतिशास्त्र में छह प्रकार के सुखों की चर्चा की गई है।

अर्थागमों नित्यमरोगिता च प्रिया च भार्या प्रियवादिनी च।

वश्यश्च पुत्रो अर्थकरी च विद्या षट् जीव लोकेषु सुखानि राजन्।

धनागम, नित्य आरोग्य, सुंदर पत्नी, वह भी प्रियबोलने वाली हो, आज्ञाकारी पुत्र और ऐसी विद्या जिससे अर्थप्राप्ति हो सके, ये छह सुख हैं इस संसार में।

हम लोगों की भी सामान्यतया यही मान्यता है। लेकिन देखने में आया है कि जिनके पास ये छहों हैं, वे भी इस संसार में दुखी हैं। यदि ऐसा न होता, तो अपने भरे-पूरे परिवार, सुख, ऐश्वर्य का परित्याग करके सम्राट् वनों में नहीं जाते। उपनिषदों में एक कथा आती है। जिसमें ऋषि ने जब अपनी पत्नियों को सम्पत्ति का आधा-आधा बंटवारा करने को कहा, तो एक ने उनसे पूछ ही लिया, ‘‘आप इस सभी को छोड़ कर कहां जाना चाहते हैं ?’’

उसने यह भी आग्रह किया, ‘जहां आप जाना चाहते हैं, मैं भी आपके पास वहां चलूंगी।’’

इन कथाओं से स्पष्ट होता है कि संसार में जिन्हें सुख के साधन कहा जाता है, उनका सुख से दूर-दूर का वास्ता नहीं है, वे दुख के कारण हैं।

स्वामी जी के प्रवचनों में उसी मार्ग की ओर बारम्बार संकेत किया गया है, जो सही अर्थों में सुख की ओर ले जाता है। यही सच्चे सुख का साधन है—अर्थात् जो सुख इससे प्राप्त होता है, वह कभी छिनता नहीं।

– प्रकाशक

‘सुख एक विशेष अवस्था है मन की। जब संवेदना अनुकूल होती है, तब सुख की अनुभूति होती है। दुख प्रतिकूल संवेदना का परिणाम है। श्रीकृष्ण ने ‘गीता’ में इस मात्र-स्पर्श को दुख-सुख का मूल बताते हुए इन्हें आने-जाने वाला कहा है। इस प्रकार इंद्रियों द्वारा प्राप्त सुख किसी भी रूप में स्थायी नहीं हो सकता। इसका यह अर्थ हुआ कि सुख का सहज भाव निरर्थक है क्योंकि प्रत्येक जीवन सुख के लिए कर्म में प्रवृत्त होता है।

इंद्रिय-विषय के संयोग से प्राप्त होने वाला सुख आने-जाने वाला है—ऐसा कहकर भारतीय मनीषी बताना चाहते हैं कि यह जीव की प्रमुख भूल है। इस सुख का स्रोत कहां है ? सुख अपने स्रोत में ही मिलेगा। हम अपनी सुविधा के अनुसार जिस किसी स्थान पर जो कुछ ढूँढ़ना चाहें तो क्या वह मिल जाएगा ? बिल्कुल नहीं ! वह उसी स्थान पर मिलेगा, जहाँ उसका मूल स्रोत है या फिर जहाँ वह खोया है। गोस्वामी तुलसीदास ने ‘रामचरित मानस’ में एक सिद्धांत के रूप में इस बात की पुष्टि की है—

वारि मथै वरु होई घृत सिकता ते बरु तेल।

बिनु हरिकृपा न भव तरिअ यह सिद्धांत अपेल।।

संभव है, रेत को पेरने से तेल निकल आए, पानी को मथने से मक्खन (घृत) निकल आए, तो भी यह नहीं भूलना चाहिए कि परमात्मा का स्मरण किए बिना भवसागर से तरा नहीं जा सकता। यह जटल सिद्धांत है। भव का अर्थ दुख है और हरि का अर्थ है—परमात्मा अर्थात् सत्य।

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Paperback

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Language

Hindi

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Publishing Year

2015

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