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Description
भाग्यचक्र
भूमिका
संस्मरण लिखते समय मन में यह विचार उत्पन्न हुआ था कि इन संस्मरणों को विषयानुसार श्रेणीबद्ध करूं।
अन्य अनेक व्यक्तियों की भाँति मेरा जीवन भी अनेक रंगों से रंजित रहा है। जीवन के एक पक्ष अर्थात् अपने राजनीतिक विकास को ‘भाव और भावना में लिखा था। इस ‘भाग्य-चक्र’ में एक अन्य दृष्टि से जीवन की घटनाओं का वर्णन करना चाहता हूँ।
अपने व्यवहार को मैंने दो श्रेणियों में बाँटने का प्रयास किया है। कुछ ऐसे व्यवहार हैं जिन्हें मैंने विचारपूर्वक सम्पन्न करने का प्रयत्न किया है तथा दूसरे वे व्यवहार हैं जिनके पीछे किसी प्रकार की सुविचारित योजना नहीं रही जिनके लिए कुछ प्रयास भी नहीं किया और कभी कुछ किया तो फल उस विचारित प्रयास के अनुकूल नहीं हुआ।
इसका कारण मैं भाग्य का चक्र मानता हूँ।
मेरा विश्वास है कि ऐसी अनेक घटनाएँ प्रत्येक व्यक्ति के साथ घटती हैं, परन्तु व्यक्ति अपने कार्यों में व्यस्त रहते हुए अथवा विचारशीलता के अभाव में उन घटनाओं की ध्यान दिए बिना जीवन व्यतीत करता चला जाता है।
मेरा ध्यान इन घटनाओं की ओर गया तो फिर मैं अपने पूर्ण जीवन पर अवलोकन करने लगा। जब एक बार इस दिशा में अवलोकन आरम्भ हुआ तो फिर ऐसा दिखाई दिया कि जीवन की आधी से अधिक घटनाएँ इस भाग्य-चक्र के अन्तर्गत हैं। जीवन की शेष घटनाएँ तो सामान्य रोटी, कपड़ा, मकान उपलब्ध करने का प्रयास मात्र हैं।
मन में यह विचार उठता है कि जीवन के इस पहलू को छोड़ दूँ तो फिर जीवन में किया ही क्या है जो उल्लेखनीय है अथवा संस्मरणों में लिखने योग्य है ?
एक बात यहाँ बताना चाहता हूँ। इस भाग्य-चक्र की ओर मेरा ध्यान गया कैसे ? और फिर इस प्रकार की घटनाओं को भाग्य अर्थात पूर्वजन्म से सम्बद्ध समझा क्यों ? इसकी भी एक कहानी है।
मैं दिल्ली में चिकित्सा का कार्य करने लगा था। दिल्ली आकर आर्थिक स्थिति और सुखद हो गई थी। लेखन-कार्य से भी कुछ ख्याति मिलने लगी थी। एक दिन मैं अपनी दुकान पर बैठा था कि दिल्ली की एक आर्यसमाज के एक पुरोहित दुकान पर आए और मेरे लेखन-कार्य पर बात करने लगे। पुरोहित जी मेरे पूर्व परिचित थे। इस कारण आते ही उन्होंने कहा, ‘वैद्यजी आप ! तो बंकिम का अवतार हैं।’’
मैं समझ गया पंडित जी मेरी हँसी उड़ा रहे हैं। मैंने कह दिया, ‘‘तो आप मेरी हँसी उड़ाने आए हैं ? एक साहित्यकार ने कहा कि मेरे उपन्यास समाचार-पत्र का एक पन्ना ही हैं।’’
पंडित जी का कहना था, ‘‘नहीं वैद्यजी ! मैं हँसी नहीं उड़ा रहा। मैं सत्य हृदय से ऐसा मानने लगा हूँ।’’
मैं जानता था कि पंडित जी आर्य समाजी हैं और अवतार से उनका अभिप्राय है कि बंकिमचन्द्र की आत्मा को मेरे शरीर में पुनर्जन्म मिला है।
परन्तु पंडित जी के कथन से मुझे विश्वास नहीं हुआ। विश्वास करने का कोई कारण भी नहीं था। और विश्वास करने में लाभ भी नहीं था। इस कारण मैं चुप रहा। मैंने बात बदल दी। पंडितजी महाभारत पर एक ग्रंथ लिख रहे थे। उस पर चर्चा चल पड़ी।
इसके कई वर्ष उपरान्त एक मित्र की लड़की के विवाह पर पुरोहितजी के पुनः दर्शन हुए। पंडित जी वहाँ विवाह-संस्कार कराने के लिए आए हुए थे। जब बराती भोजन कर रहे थे। तो मेरे पास बैठ साहित्य-चर्चा करने लगे। उस समय तक मेरी लिखी पुस्तकों की संख्या पचास से ऊपर हो चुकी थी। उन्होंने पुनः मेरे बंकिम के अवतार होने की चर्चा आरम्भ की तो मैंने कहा, ‘‘मैं तो उनकी छाया भी नहीं हूँ। उनका एक गीत ‘वन्देमातरम’ उनको अमर साहित्यकार बना गया है।’’ तब पंडितजी ने कहा कि बंकिम बंगाली होने के कारण भावनात्मक बुद्धि अधिक रखते थे और आप पंजाबी होने के कारण व्यवहार तथा तर्क को प्रधानता देते हैं। इस कारण आप दोनों में अन्तर तो है, परन्तु दोनों में समानता भी है। दोनों की आत्मा पर हिन्दू शास्त्रों के संस्कार हैं।
पंडितजी ने यह तुलना विचार करके ही की थी अथवा यह सहसा उनके मुख से निकली थी, कह नहीं सकता। परन्तु पंडितजी के इस कथन ने मेरे मस्तिष्क को एक दिशा पर विचार करने पर विविश कर दिया।
उन दिनों ‘शाश्वत संस्कृति परिषद्’ की पत्रिका ‘शाश्वत वाणी’ में अपने शास्त्राध्ययन के परिणामस्वरूप हिन्दू-धर्म तथा संस्कृति इत्यादि पर लेख लिखने लगा था। अतएव विचार करने के लिए मार्ग मिला तो मैं अन्य उपन्यासकारों से अपनी तुलना करने लगा। मैंने प्रेमचन्द को पढ़ा था। शरत् के हिन्दी में अनूदित उपन्यास भी मैंने पढ़े थे। हिन्दी तथा अंग्रेज़ी के भी अन्यान्य उपन्यास पढ़े थे, परन्तु आत्मा-परमात्मा, पुनर्जन्म इत्यादि विषयों पर किसी उपन्यासकार की दृष्टि नहीं गई थी।
तब तक मैं हिन्दू समाज की बुराईयों पर भी उपन्यास लिखने लगा था। विचार करने पर एक विशेष बात ध्यान में आई। हिन्दू तथा भारतीय समाज की बुराइयों पर कई लेखक साहित्य लिख रहे हैं, फिर भी मुझसे तथा उन अन्य साहित्यकारों में अन्तर है। अन्तर यह था कि मैं अपनी कृतियों में प्रेरणा लेता था हिन्दू शास्त्रों से और वे अन्य उपन्यासकार प्रेरणा लेते थे योरुपियन समाज-शास्त्र से।
इसी चिन्तन के काल में मुझे राजा राममोहन राय की जीवनी पढ़ने का अवसर मिला। राजा राममोहन राय एक देशभक्त थे तथा बहुत ही उन्नत विचारों के व्यक्ति थे। वे जहां भारतीय-समाज की उन्नति करना चाहते थे, वहाँ समाज को स्वतन्त्रता का भोग भी दिलाना चाहते थे। परन्तु उनके सब कार्यों की प्रेरणा पाश्चात्य संस्कृति तथा राजनीति थी।
इसके अतिरिक्त मेरे मस्तिष्क में स्वामी दयानन्द का जीवन-चरित्र और कार्य भी था। स्वामी जी भी देशभक्त और महान सुधारक थे परन्तु उनको प्रेरणा मिली थी वेदादि शास्त्रों से। स्वामी दयानन्द में भी स्वतन्त्रता की लालसा किसी भी देशभक्त से कम नहीं थी। 1857 के स्वतंत्रता संग्राम की असफलता के उपरान्त स्वामी दयानन्द ही भारत के व्योम पर एकमात्र प्रकाशमान् ज्योति थे जो व्याख्यानों में निर्भीकता से कहते फिरते थे कि देश में देशवासियों का राज्य होना चाहिए।
स्वामी जी को इन विचारों की प्रेरणा इंग्लैंड की संसद अथवा फ्रांस की क्रान्ति से प्राप्त नहीं हुई थी वरन् भारतीय शास्त्रों तथा इतिहास से प्राप्त हुई थी। यह अन्तर था राजा राममोहन राय तथा स्वामी दयानन्द में। एक पश्चिम की आँधी में उड़ा जा रहा था और दूसरा अपने प्राचीन गौरव से उत्साहित होकर देश को जाग्रत कर रहा था।
जब मुझे बंकिम का अवतार कहने वाले पंडितजी ने कहा कि मुझमें और उस महान् ऐतिहासिक साहित्यकार में शास्त्र-बुद्धि की समानता है तो यह मेरे विचार का विषय बन गया। अन्य लेखकों तथा अपने में वही अन्तर मैं देखने लगा था जो राजा राममोहन राय तथा स्वामी दयानन्द में दिखाई दिया था।
Additional information
Authors | |
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Binding | Hardbound |
ISBN | |
Language | Hindi |
Pages | |
Publishing Year | 2001 |
Pulisher |
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