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Description
बेखुदी में खोया शहर — एक पत्रकार के नोट्स
यह किताब वैचारिक लेखन में बहुआयामी है। लेखक की संवेदनशील दृष्टि, विषय-वस्तु का दायरा, मार्मिक अंदाज़ और सहज भाषा एक अलग आस्वाद लिए है जिसे लेखन की किसी एक विधा में अंटाया नहीं जा सकता।
संकलित लेखों में निजीपन, व्यक्ति विशेष, लोक-शहर के प्रति अनुराग एकाधिक बार है। लंदन, पेरिस, वियना, शंघाई, कोलंबो, दिल्ली, बंगलुक, पुणे, श्रीनगर के साथ-साथ मैकलोडगंज, मगध, मिथिला व बेलारही, तिलोनिया, तरौनी जैसे गाँव भी हैं। जेएनयू
और जिगन विश्वविद्यालय भी है। ‘ग्लोबल’ और ‘लोकल’ की इस घुमक्कडी में जहाँ कुछ पहचाने चेहरे हैं, वहीं कुछ अनजाने राही। समंदर की आवाज़ के साथ-साथ डबरा, चहबच्चा की अनुगूंज भी है। होटल-रेस्तरां के साथ-साथ ढाबा भी।
इन पन्नों में समंदर पार से लहराती आती रेडियो की आवाज है। उदारीकरण के बाद अखबार ते पन्नों पर फैली ‘ख़ुश खबर’ है। ‘न्यूज़रूम नेशनलिज्म’ की आहट भी। बॉलीवुड का स्थानीय रंग है, हिंदुस्तानी और लोक संगीत की मधुर धुन है, साथ ही नौटंकी का शोक गीत भी। मिट्टी पर बने कोहबर की ख़ुशबू एक तरफ़ है, हवेलियों में बिखरते भित्तिचित्र दूसरी तरफ़।
उदास गिरगिट मे बात करता हुआ एक विद्रोही कवि है। हाथ पकड़ कर सिखाने वाला एक कबीरा पत्रकार है। स्वभाव के विपरीत नहीं जाने की सलाह देने वाला एक फक्कड़ फ़िल्मदार भी। एक तरफ़ नॉस्टेल्जिया, स्मृति और विस्मृति के गह्न हैं, दूसरी तरफ वर्तमान का यथार्थ है और भविष्य के रोशनदान भी।
उदारीकरण और भूमंडलीकरण के दौर में, 21वीं सदी के दो दशकों के बीच, लिखे गए इन लेखों में एक पत्रकार और शोधार्थी का साझा अनुभव है। वादी स्वर एक ब्लॉगर का है। शैली ‘मैं’ और ‘टोका-टोकी’ की है।
Additional information
Authors | |
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Binding | Paperback |
ISBN | |
Language | Hindi |
Pages | |
Publishing Year | 2019 |
Pulisher |
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