Madhyayugin Ras Darshan Aur Samkalin Soundaryabodh
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Description
मध्ययुग रास दर्शन और समकालीन सौन्दर्यबोध
मध्ययुगीन रस-दर्शन और समकालीन सौन्दर्य – इस पुस्तक में रस-निरूपण के बजाय रसदर्शन को केन्द्र में रखकर समकालीन ‘एस्थेटिक्षा’ (सौन्दर्यबोध) को लोकायतिक-यथार्थवादी वृत्त में बाँधने की भरसक कोशिश की गई है। वस्तुतः सातवीं-आठवीं शती में एक ओर मीमांसक, नैयायिक, तांत्रिक और वेदान्ती दार्शनिकों की त्रयणुक क्रान्ति का प्रवर्तन हुआ, तो दूसरी ओर अनुगामी भट्टलोल्लट, श्रीशंकुक तथा सांख्यवादी भट्टनायक ने रससूत्र के चारों ओर सौन्दर्यात्मक दार्शनिक, सामाज-सांस्कृतिक दिशाओं की परम्परा को आगे बढ़ाया। दार्शनिक अन्तर्विरोधों का यह प्रचंड घमासान इस पुस्तक में उद्घाटित किया गया है। उनके हथियार और औज़ार थे – रूपक, न्याय, पारिभाषिक पदबन्ध। उन्होंने आगे की शताब्दियों तक यह पोलेमिक्स जारी रखते हुए भारतीय समाज तथा संस्कृति में आत्मवादी बनाम देहवादी वाद-प्रतिवादों के पाठ, अनुपाठ, प्रतिपाठ, उत्तरपाठ प्रस्तुत किए। प्रस्तुत पुस्तक भी तदनुरूप दो खंडों में बाँटी गई है। यह महायात्रा लौकिक ज्ञानप्रमाण से लेकर आलौकिक एस्थेटिक्षायन तक का सांस्कृतिक चक्र पूरा कर लेती है। हम इसे ‘आलोचिन्तना’ कहना पसन्द करेंगे। इसलिए इस द्वितीय संस्करण में आदिशंकराचार्य, अभिनव गुप्त (पुनः) शामिल किए गए हैं। साथ में वैज्ञानिक गुण-सूत्रों की भी तलाश हुई है। इसलिए यह पुस्तक मध्यकालीन अवधारणाओं तथा आधुनिक समाज-वैज्ञानिक पूर्वानुमानों वाली भाषाओं के द्वन्द्व एवं दुविधा को भी प्रकट करती है। अतः मनीषा के रहस्य-जाल तथा द्वन्द्वन्याय के उदात्त प्रभामंडल, दोनों ही गुत्थमगुथ हैं।
Additional information
Authors | |
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Binding | Hardbound |
ISBN | |
Language | Hindi |
Pages | |
Publishing Year | 2012 |
Pulisher |
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