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Description
गिलिगडु
स्वातंत्र्योत्तर हिंदी कथा जगत में अपनी धारधार कहानियों के जरिए विशिष्ट पहचान बनाने वाली कथाकार चित्रा मुद्गल ने ‘एक जमीन अपनी’ सरीखे उपन्यास से जो जमीन बनाई, उसे आवां जैसे वृहद उपन्यास से और पुख्ता ही किया। सामाजिक चेतना से लैस उनके पात्र समकालीन जटिल यथार्थ में अपनी खास जगह खुद बनाते हैं।
‘गिलिगडु’ चित्रा जी का आकार में छोटा, किंतु संवेदनशीलता में कहीं गहरा उपन्यास है। इस उपन्यास में सेवानिवृत्त बुजुर्ग लकी एकरेखीय कहानी नहीं, जीवन के रंग बहुआयामी प्रयोगों में उभर कर आए हैं। यह उपन्यास तेरह दिन की कहानी में चलते दो बुजुर्गों के जीवन का पूरा खाका ही नहीं बताता अपितु आज के बदलते जीवन मूल्यों को भी परिभाषित करता है कि कैसे नौजवान पीढ़ी अपने बुजुर्गों को घर में सम्मान न देते हुए अकेला छोड़ देती है।
यह कृति इस विश्वास को और भी गहरा करती है कि साहित्यिक मूल्यों में सामाजिक सार्थकता का महत्व हमेशा बना रहेगा। जीवन में छोटे-छोटे महायुद्धों में सहज विजय पाने के लिए रचनात्मक रास्ते की अनूठी तलाश है चित्रा मुद्गल का यह नया उपन्यास।
पठनीयता ऐसी कि शुरू करते ही बंधे चले जाएं। जीवन ऐसा कि पूरी धड़कन के साथ सामने आए और कला ऐसी कि अनायास खिल-खिल जाए। उपन्यास में रचनात्मक विश्वास ऐसा कि रचनाकार के अन्य उपन्यास भी पाठक पढ़ने को प्रेरित हो जाएं।
कुरकुरी कलफ
टॉमी को फारिगकराकर भी बाबू जसवंत सिंह नियमानुसार उसे वापस घर छोड़ने नहीं जा सके।
घर से निकलते हुए उन्हें देर हो गई। कब्ज के पुराने मरीज ठहरे। बवासीर की शिकायत इन दिनों खासी उछाल लिए हुए हैं। पेट सुबह लोटा-भर पानी पी लेने के बावजूद टुकड़ों में साफ होता है। मस्से रह-रहकर रिसते हैं।
ऐन निकलने के समय पेट में ऐंठन सी हुई। रुकना पड़ा। यों तो बाबू जसवंत सिंह ने त्रिफला में पंचस्कार के साथ कायमचूर्ण मिलाकर रखा हुआ है। ताकि तकलीफ कम हो। तकलीफ कम होती नजर नहीं आ रही। रात में फंकी लीलते हुए अलबत्ता भ्रम ढांढस बंधाए रखता है कि उनकी अगली सुबह तकलीफ रहित होगी। मगर अगली सुबह अगली के कंधों पर जिम्मा सरका निर्मम हो आंखें फेर लेती है। अब तो खून से भरा कमोड देख उन्हें घबराकर होने लगती है। ‘हिमअप’ गोलियों की मात्रा उन्होंने बिना डाक्टरी सलाह के बढ़ा ली है।
खून कुछ तो बने। कैसे भी बने। हालांकि जानते हैं कि बिना डाक्टर से पूछे उन्हें ऐसा नहीं करना चाहिए। मजबूरी है। एक तो उनके डाक्टर-डाक्टर सक्सेना कानपुर में जो बैठे हैं।
जबर टॉमी की जबरई पर बाबू जसंवत सिंह को गुस्सा आ रहा। कमबख्त अडोल नहीं खड़ा रह सकता। धाय हाथ तुड़ात-सा सूंऽऽ सूंऽऽ जमीन सूंघ रहा है। धाय बैलाया-सा खुरों से मिट्टी खुरचने लगता है। धाय गले से अजीबोगरीब आवाजें निकालते हुए छूट भागने की मुद्रा अख्तियार कर उन्हें डराने लगता कि अब वह उन्हें घसीटे बिना नहीं मानने का। बाबू जसंवत सिंह हैं कि एक क्षण को भी वे पुलिया छोड़ इधर-उधर होने को राजी नहीं हैं।
पुलिया छोड़ आगे बढ़ने का मतलब होगा अपने भेंट स्थल से नदारद होना। जो वह कतई नहीं होना चाहते।
यह भी जानते हैं बाबू जसवंत सिंह की फारिग होने के समय टॉमी ऐसी ही बेचैनी से गुजरता है। फारिग हो लेने के बाद भी यह छुछुआहट उनकी समझ से परे है। हो सकता है, उसका यह उजड्ड व्यवहार उसकी मर्जी के खिलाफ खड़े रहने की धौंसपट्टी हो ! अपनी जरूरत के समय हरामी ऐसा बन रहा है जैसे उसे कुछ समझने की जरूरत ही नहीं, न उसे समझ में आ रहा है कि आखिर वे उसे लिए इस पुलिया विशेष पर थूनी-सी गड़े हुए क्यों खड़े हुए हैं ?
उन्हें टॉमी को खीज के बावजूद भरियाना नहीं चाहिए। बाबू जसवंत सिंह ने स्वयं को टोका।
Additional information
Authors | |
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Binding | Hardbound |
ISBN | |
Language | Hindi |
Pages | |
Publishing Year | 2018 |
Pulisher |
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