Main Haar Gayi
Main Haar Gayi
₹199.00 ₹149.00
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Author: Mannu Bhandari
Pages: 164
Year: 2018
Binding: Paperback
ISBN: 9788171197118
Language: Hindi
Publisher: Radhakrishna Prakashan
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Description
मैं हार गई
इस संग्रह की कहानियाँ मानवीय अनुभूति के धरातल पर रची गई ऐसी रचनाएँ हैं जिनके पात्र वायवीय दुनिया से परे, संवेदनाओं और अनुभव की ठोस तथा प्रामाणिक भूमि पर अपने सपने रचते हैं; और ये सपने परिस्थितियों, परिवेश और अन्याय की परम्पराओं के दबाव के सामने कभी-कभी थकते और निराश होते भले ही दिखते हों, लेकिन टूटते कभी नहीं; पुनः-पुनः जी उठते हैं।
इस संग्रह में सम्मिलित कहानियों में कुछ प्रमुख हैं : ईसा के घर इनसान, गीत का चुम्बन, एक कमज़ोर लड़की की कहानी, सयानी बुआ, दो कलाकार और मैं हार गई। ये सभी कहानियाँ मन्नूजी की गहरी मनोवैज्ञानिक पकड़, मध्यवर्गीय विरोधाभासों के तलस्पर्शी अवगाहन, विश्लेषण और समाज की स्थापित आक्रान्ता, नैतिक जड़ताओं के प्रति प्रश्नाकुलता आदि तमाम लेखकीय विशेषताओं का प्रतिनिधित्व करती हैं, जिनके लिए मन्नूजी को हिन्दी की आधुनिक कहानी-धारा में विशिष्ट स्थान प्राप्त है।
अनुक्रम | |||||||||
ईसा के घर इंसान | 9 | ||||||||
गीत का चुम्बन | 23 | ||||||||
जीती बाजी की हार | 34 | ||||||||
एक कमजोर लड़की की कहानी | 42 | ||||||||
सयानी बुआ | 65 | ||||||||
अभिनेता | 71 | ||||||||
श्मशान | 83 | ||||||||
दीवार, बच्चे और बरसात | 90 | ||||||||
पंडित गजाधर | 101 | ||||||||
कील और कसक | 113 | ||||||||
दो कलाकार | 129 | ||||||||
मैं हार गई | 140 |
ईसा के घर इंसान
फाटक के ठीक सामने जेल था।
बरामदे में लेटी मिसेज शुक्ला की शून्य नजरें जेल की ऊँची-ऊँची दीवारों पर टिकी थीं। मैंने हाथ की किताबें कुर्सी पर पटकते हुए कहा – “कहिए, कैसी तबीयत रही आज ?”
एक धीमी-सी मुस्कराहट उनके शुष्क अधरों पर फैल गई। बोलीं – ‘‘ठीक ही रही ! सरीन नहीं आई ?”
“मेरे दोनों पीरियड्स खाली थे सो मैं चली आई, सरीन यह पीरियड लेकर आएगी।” दोनों कोहनियों पर जोर देकर उन्होंने उठने का प्रयत्न किया, मैंने सहारा देकर उन्हें तकिए के सहारे बिठा दिया। एक क्षण को उनके ज़र्द चेहरे पर व्यथा की लकीरें उभर आईं। अपने-आपको आरामदेह स्थिति में करते हुए उन्होंने पूछा – “कैसा लग रहा है कॉलेज ? मन लग जायगा ना ?”
गीत का चुम्बन
कनिका की गाड़ी जब माथुर साहब के बँगले के सामने रुकी तो एक बार उसका मन हुआ, वापस लौट जाए। पता नहीं, कौन-कौन लोग आए होंगे, कैसे वह सबसे बात करेगी ? मौसी भी कभी-कभी बेहद ज़्यादती कर बैठती हैं। माथुर साहब ने बुला ही लिया तो कोई बहाना भी तो बनाया जा सकता था। फिर मैं कहाँ की कलाकार-यों ही धोड़ा-बहुत गा लेती हूँ तो मौसी समझती हैं भारी गवैया हो गई। माथुर साहब ने महज़ जान-पहचान की वजह से बुला लिया, नहीं तो ऐसे समारोह में जहाँ शहर के कवि, साहित्यिक, चित्रकार और गायक जुटेंगे, वहाँ मेरी क्या बिसात भला ? तभी उसे माथुर साहब फाटक की ओर आते दिखाई दिए-अब उतरने के सिवाय कोई चारा नहीं था। साड़ी का पल्ला ठीक किया, दोनों हाथ पीछे ले जाकर एक बार जूड़े को ठीक किया और कनिका उतर पड़ी।
जीती बाजी की हार
कॉलेज में तीन लड़कियाँ आईं। नाम थे आशा, नलिनी और मुरला। अन्य लड़कियों से दूर, तीनों ने अपनी अलग ही दुनिया बना ली। फुर्सत के समय या तो तीनों पुस्तकालय में बैठी रहतीं या पढ़ी हुई पुस्तकों पर बहस करतीं। कवि, लेखक, उपन्यासकार सभी उनकी आलोचना का शिकार बनते और आलोचना भी ऐसी-वैसी नहीं, उसमें मौलिकता रहती थी, उनका अपना-अपना दृष्टिकोण रहता था-जो सुनता, दाद दिए बिना नहीं रहता। वैसे तो सभी विषयों की ओर उनकी रुचि थी, फिर भी साहित्य की ओर कुछ अधिक झुकाव था। पढ़ना-लिखना और बहस करना इसके अतिरिक्त इन बुद्धिजीवी लड़कियों की रुचि और किसी में नहीं थी। साज-श्रृंगार की ओर से, जो इस उम्र की लड़कियों की रुचि का मुख्य विषय रहता है-ये तीनों कितनी उदासीन थीं, इसका अनुमान उनके बिखरे बालों और कपड़ों से सहज ही लगाया जा सकता था।
एक कमजोर लड़की की कहानी
जैसे ही रूप ने सुना कि उसका स्कूल छुड़वा दिया जाएगा, वह मचल पड़ी – “मैं नहीं छोडूँगी स्कूल। मैं साफ़-साफ़ पिताजी से कह दूँगी कि मैं घर में रहकर नहीं पढ़ूँगी। घर में भी कहीं पढ़ाई होती है भला ! बस, चाहे कुछ भी हो जाए, मैं यह बात तो मानूँगी ही नहीं। आजकल कुछ बोलती नहीं हूँ तो इसका मतलब तो यह नहीं कि जिसकी जो मर्जी हो वही करता चले।’’ वह मुट्ठियाँ भींच-भींचकर संकल्प करती रही और पिता के आने की राह देखती रही। सन्ध्या को जैसे ही पिताजी आए, वह सारा साहस बटोरकर, अपने को खूब दृढ़ बनाकर उनके कमरे की तरफ चली। जैसे ही कमरे में घुसी उसके पिताजी बोल पड़े –
“देखो रूप बिटिया, मैंने तुम्हारे लिए एक अच्छे से मास्टरजी की व्यवस्था कर दी है, वे कल से ही तुम्हें पढ़ाने आएँगे। आजकल यों भी स्कूलों में क्या होता-जाता है, सिवाय ऊधम धाड़े के।
सयानी बुआ
सयानी बुआ का नाम वास्तव में ही सयानी था या उनके सयानेपन को देखकर लोग उन्हें सयानी कहने लगे थे, सो तो मैं आज भी नहीं जानती; पर इतना अवश्य कहूँगी कि जिसने भी उनका यह नाम रखा वह नामकरण-विद्या का अवश्य पारखी रहा होगा।
बचपन में ही वे समय की जितनी पाबन्द थीं, अपना सामान सँभालकर रखने में जितनी पटु थीं, और व्यवस्था की जितनी क़ायल थीं, उसे देखकर चकित हो जाना पड़ता था। कहते हैं, जो पेंसिल वह एक बार खरीदती थीं, वह जब तक इतनी छोटी न हो जाती कि उनकी पकड़ में भी न आए तब तक उससे काम लेती थीं। क्या मजाल कि वह कभी खो जाए या बार-बार नोक टूटकर समय से पहले ही समाप्त हो जाए। जो रबर उन्होंने चौथी कक्षा में खरीदी थी, उसे नवीं कक्षा में आकर समाप्त किया।
अभिनेता
वह बड़ी कामयाब और ग़ज़ब की अभिनेत्री थी, अपनी कला में माहिर।
मगर ठहरिए ! यह तो कहानी की शुरुआत ही ग़लत हो गई। कहानी का नाम रखा, “अभिनेता” और शुरू किया “अभिनेत्री’ से। लगता है, अपनी जात के लिए जो एक कुदरती कमजोरी मन में है, वह आदत बन गई है। और चूँकि आगे कदम बढ़ा दिया है सो अब बढूँगी तो आगे ही। हाँ, इस उम्मीद के साथ कि मेरी इस अभिनेत्री की कला और सौन्दर्य पर अपने को दिलोजान से क़ुर्बान करनेवाला कोई अभिनेता आ ही जाएगा, जैसा कि आज की हर कहानी और हर फ़िल्म में हुआ करता है, और गलती से दिए मेरे इस शीर्षक को सार्थक कर देगा।
तो किस तरह अपने नन्हे-नन्हे हाथ-पैरों और शरीर के अंग-अंग को थिरकाती, घर के कोने-कोने को अपने जादू भरे सुरों से गुँजाती एक दिन वह अपने स्कूल और फिर अपने कॉलेज के रंगमंच का ‘जीवन’ और फिर देखते ही देखते हर चीज़ को पीछे छोड़कर कैसे फिल्मी सितारों की कतार में सबसे आगे आ बैठी, यह एक लम्बी कहानी है-मीठी भी और कड़वी भी।
श्मशान
रात के दस बजे होंगे। श्मशान के एक ओर डोम ने बेफ़िक्री से खाट बिछाते हुए कबीर के दोहे की ऊँची तान छेड़ दी, “जेहि घट प्रेम न संचरै, सोई घट जान मसान !”
श्मशान का दिल-भर आया। एक सर्द आह भरकर उसने पहलू में खड़ी पहाड़ी से कहा, “मैं इंसान को जितना प्यार करता हूँ, उतनी ही घृणा उससे पाता हूँ। सभी मनुष्य यही चाहते हैं कि जीते जी उन्हें मेरा मुँह न देखना पड़े। पर वास्तव में मैं इतना बुरा नहीं हूँ। संसार में जब मनुष्य को एक दिन के लिए भी स्थान नहीं रह जाता, तब मैं उसे अपनी गोद में स्थान देता हूँ। चाहे कोई अमीर हो या गरीब, वृद्ध हो या बालक, मैं सबको समान दृष्टि से देखता हूँ। पर इससे क्या होता है ? मेरे पास वह प्रेम नहीं, जो मनुष्य की सबसे बड़ी निधि है। मेरे दिल में मुहब्बत का वह चिराग रोशन नहीं होता, जिसके बल पर मैं उसके दिल में अपने लिए थोड़ा-सा स्थान बना सकता।
दीवार, बच्चे और बरसात
“कौन…शन्नो बीबी ? आओ भई, कभी हम बेपढ़े-लिखों के बीच में भी बैठ जाया करो।” और भाभी बड़े स्नेह से पकड़कर मुझे जनानी बैठक में ले गईं।
“अरे ये तो शन्नो है, मैंने सोचा भग्गो आ गई। आओ शन्नो बेटा, आओ। शैल तो आज खाना खाते ही चली गई। तीन दिन इस मेह के मारे कहीं जा नहीं सकी थी, सो आज जैसे ही पानी थमा कि निकल गई। तुम पढ़ी-लिखी लड़कियों को तो घर बस जाने काटे हैं।” अम्मा के स्वर में कुछ शिकायत का पुट था।
‘‘शैल बीबी नहीं हैं तो क्या हुआ, हम तो हैं, आज हमारी पंचायत में ही बैठ जाएँगी।’’ मँझली भाभी ने ऊन का गोला बनाते हुए कहा।
पंडित गजाधर शास्त्री
गर्मी की छुट्टियाँ समुद्र-किनारे बिताने के इरादे से मैं पुरी चला गया। होटल में पहले से ही अपने लिए एक कमरा सुरक्षित करवा लिया था। अतः किसी प्रकार की असुविधा नहीं हुई। हाँ, संगी-साथी कोई नहीं था, पर वहाँ उसकी कोई आवश्यकता भी महसूस नहीं हुई। सवेरे-शाम का समय तो समुद्र की लहरों के बीच बीत जाता-बाक़ी समय पढ़ने और घूमने में। तीसरे दिन ही मैंने देखा कि पासवाले कमरे में एक नए यात्री आए हैं। लिबास से ही अनुमान लगाया कि हैं कोई हिन्दुस्तानी-मेरा मतलब हिन्दी-भाषी से है। बात यह है कि कलकत्ते में बंगाली लोग हिन्दी-भाषी लोगों को ही हिन्दुस्तानी की संज्ञा देते हैं, मानो बंगाल हिन्दुस्तान के बाहर का कोई प्रान्त हो। सन्ध्या को कमरे के बाहर खड़ा मैं समुद्र की लहरों को निहार रहा था कि वही महाशय आए और बिना किसी संकोच के उन्होंने पूछा, “आपका शुभ नाम जान सकता हूँ ?’’
कील और कसक
जैसे ही कैलाश ने आकर बताया कि नया मकान मिल गया है, रानी के मन को जैसे ठेस लगी। उसने कहा, “तुम तो किसी बात के पीछे ही पड़ जाते हो। अब दूर मकान लेकर कितनी परेशानी उठानी पड़ेगी, यह भी सोचा है ? रात-दिन तुम्हें प्रेस में रहना पड़ता है, यहाँ थे तो जब चाहा ऊपर चढ़ आए, और मुझे भी तसल्ली रहती थी कि नीचे ही हो। दूर मकान लेकर यह काम कैसे निभेगा।”
“तुम्हीं ने तो अभी चार दिन पहले रो-रोकर घर-भर दिया था कि तुम अब एक घड़ी भी इस मकान में नहीं रहोगी। मेरा क्या है, जैसे भी होगा निभा लूँगा !”
“गुस्से में कह ही दिया तो उसका क्या ? मुझे नहीं बदलना मकान। साल-भर यहाँ रहते-रहते सबसे जान-पहिचान हो गई, अब कहाँ नई जगह जाकर रहूँगी।’’
दो कलाकार
“ऐ रूनी उठ,” और चादर खींचकर, चित्रा ने सोती हुई अरुणा को झकझोरकर उठा दिया।
“क्या है…क्यों परेशान कर रही है ?” आँख मलते हुए तनिक खिझलाहट-भरे स्वर में अरुणा ने पूछा। चित्रा उसका हाथ पकड़कर खींचती हुई ले गई और अपने नए बनाए हुए चित्र के सामने ले जाकर खड़ा करके बोली-“देख, मेरा चित्र पूरा हो गया।”
“ओह ! तो इसे दिखाने के लिए तूने मेरी नींद ख़राब कर दी। बद्तमीज़ कहीं की !’’
“इस चित्र को जरा आँख खोलकर अच्छी तरह तो देख। न पा गई पहला इनाम तो नाम बदल देना।” चित्र को चारों ओर से घुमाते हुए अरुणा बोली, “किधर से देखूँ, यह तो बता दे ? हज़ार बार तुझसे कहा कि जिसका चित्र बनाए उसका नाम लिख दिया कर जिससे गलतफ़हमी न हुआ करे, वरना तू बनाए हाथी और हम समझें उल्लू।’’
मैं हार गई
जब कवि-सम्मेलन समाप्त हुआ तो सारा हॉल हँसी-कहकहों और तालियों की गड़गड़ाहट से गूंज रहा था। शायद मैं ही एक ऐसी थी, जिसका रोम-रोम क्रोध से जल रहा था। उस सम्मेलन की अन्तिम कविता थी ‘बेटे का भविष्य’। उसका सारांश कुछ इस प्रकार था, एक पिता अपने बेटे के भविष्य का अनुमान लगाने के लिए उसके कमरे में एक अभिनेत्री की तस्वीर, एक शराब की बोतल और एक प्रति गीता की रख देता है और स्वयं छिपकर खड़ा हो जाता है। बेटा आता है और सबसे पहले अभिनेत्री की तस्वीर को उठाता है। उसकी बाछें खिल जाती हैं। बड़ी हसरत से उसे वह सीने से लगाता है, चूमता है और रख देता है। उसके बाद शराब की बोतल से दो-चार घूँट पीता है। थोड़ी देर बाद मुँह पर अत्यन्त गम्भीरता के भाव लाकर, बग़ल में गीता दबाए वह बाहर निकलता है। बाप बेटे की यह करतूत देखकर उसके भविष्य की घोषणा करता है, “यह साला तो आजकल का नेता बनेगा !”
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Language | Hindi |
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Publishing Year | 2018 |
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