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Description
एक थी रामरती
अनुक्रम
- वाग्देवी का अद्भुत वरदान
- हे विदेशिनी ! हम तुम्हें पहचानते हैं
- ‘..मुरलिया तू कौन गुमान भरी !’
- जो मिले सुर
- स्वर-लय नटिनी
- वे रहीम अब बिरछ कहँ
- माताहारी
- नदी जो मरुस्थल में खो गई
- स्वरलय नटिनी
- नथुनिया ने हाय राम…
- एक थी रामरती
- चिरसाथी मोर
- चन्दन
- दाना मियाँ
- मत तोड़ो चटकाय
- परमतृप्ति
- जन्मदिन
वाग्देवी का अद्भुत वरदान
अपनी पटना-यात्रा के दौरान मेरी भेंट बिहार की एक ऐसी प्रतिभाशाली महिला से हुई, जिन्हें देखकर सहज में विश्वास नहीं होता है कि यह वही विलक्षण स्वरसाधिका हैं, जिन्हें बिहार के लोकगीतों का चलता-फिरता विश्वकोश कहा गया है। मैं बहुत वर्षों से उनके मधुर सहज कण्ठ की प्रशंसिका रही हूँ, किन्तु उन्हें कभी देखा नहीं था। मैं जहाँ ठहरी थी वहाँ से उनका निवासस्थान निकट ही था, इसी से मैंने उनसे मिलने की इच्छा प्रकट की। मेरी मेजबान ने उन्हें मेरा सन्देश भिजवाया तो वे स्वयं आ गईं। मैं उनके कंठ की प्रशंसिका थी और वे मेरी लेखनी की। मैंने जब उन्हें देखा तो दंग रह गई। अत्यन्त साधारणसी वेशभूषा, सीधे पल्ले की साड़ी, उदास-सा चेहरा किन्तु जब हँसी तो वहीं सरल चेहरा एक क्षण में उद्भासित हो उठा।
निश्चय ही बिहार को अपनी इस स्वरसाधिका पर गर्व होना चाहिए। अथक परिश्रम से ही उन्होंने बिहार के लोकगीतों का जैसा अद्भुत संकलन किया है, वह स्वयं अपने में मिसाल है। शायद ही कोई क्षेत्रीय लोकधुन या संस्कार गीत उनके कंठ में न रिसा हो। वास्तव में ये भारत की रेशमा हैं-वही सरलता, वही निरभिमान सहज स्मित और मांसल कंठ की वही जादूगरी। अन्तर इतना ही है कि पाकिस्तान ने रेशमा-रत्न को गुदड़ी से निकाल खरे सोने से चौखट में मढ़ दिया है और हमारे भारत की ये रेशमा अभी भी अपने काष्ठ के चौखट में ही सन्तुष्ट हैं।
स्वर्गीय जगत बहादुर सिंह की पुत्री, विंध्यवासिनी का जन्म 5 मार्च, 1920 को मुजफ्फरपुर में हुआ। जन्म के बाद ही ये मातृहीन हो गईं, अपने नाना चतुर्भुज सहाय की देखरेख में उनकी शिक्षा प्रारम्भ हुई। भगवान भक्त नाना हरिभजन गाने में ही लीन रहते थे, वही विंध्यवासिनी के लिए वरदान सिद्ध हुआ। इनका मधुर कंठ सुन नाना ने इन्हें क्षितीशचन्द्र वर्मा से संगीत-शिक्षा दिलवाई किन्तु स्कूली शिक्षा अधिक नहीं हो पाई।
यह भी एक विचित्र संयोग था कि 1931 में इनका विवाह श्री सहदेवेश्वर वर्मा (अब स्वर्गीय) से हुआ जिन्होंने इन्हें साहित्य एवं संगीत के अध्ययनगायन की सम्पूर्ण सुविधाएँ दिला दीं। 1942 में स्थायी रूप से पटना रहने आ गईं और यहाँ एक कन्या विद्यालय में संगीत शिक्षिका बन गईं। इसी बीच, उदार पति के सहयोग से इन्होंने प्रयाग से विशारद और हिन्दी विद्यापीठ, देवघर से साहित्य विभूषण की परीक्षाएँ भी उत्तीर्ण कर लीं। पति स्वयं संगीतज्ञ थे, उन्हीं के प्रयास से इन्होंने भातखण्डे संगीत विद्यालय, लखनऊ, से शास्त्रीय संगीत की भी विधिवत् शिक्षा प्राप्त की।
अपने पति के सहयोग से ही इन्होंने 1949 में ‘विंध्यकला मन्दिर, पटना’ की स्थापना की। यह बिहार का एक प्रमुख लोकगीत, लोकनृत्य एवं नाट्य के साथ-साथ शास्त्रीय संगीत विद्यापीठ भी है। श्री मकबूल नदाफ लिखते हैं, “यह कला मन्दिर, विंध्यवासिनी देवी का ही मानस-पुत्र है, रवि वाबू ने जब प्रारम्भ में बँगला रंगमंच पर महिलाओं को उतारा था तब उनकी कड़ी आलोचना की गई थी, किन्तु इन सारी आलोचनाओं के बावजूद रवि बाबू बँगला लोक रंगमंच को विकसित करते रहे। समय के साथ-साथ स्थिति बदली और बाद में उनकी प्रशंसा होने लगी। 30 वर्ष के पश्चात् उसी ‘अमृत बाजार’ में श्री तुषारकान्ति घोष ने लिखा कि रवि बाबू ने बँगला रंगमंच को उठाया ही नहीं, बल्कि उन्होंने बंग जनजीवन में लोकसंगीत और लोकनृत्य को भी उभार दिया, यही बात बहुत कुछ अंश में विंध्यवासिनी देवी जी पर विहार के लिए भी लागू होती है।”
Additional information
Authors | |
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Binding | Paperback |
ISBN | |
Language | Hindi |
Pages | |
Publishing Year | 2007 |
Pulisher |
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