Lokgiton Ke Sandarbh aur Ayam

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Lokgiton Ke Sandarbh aur Ayam

Lokgiton Ke Sandarbh aur Ayam

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900.00 760.00

Author: Shanti Jain

Availability: 5 in stock

Pages: 736

Year: 2019

Binding: Hardbound

ISBN: 9789387643123

Language: Hindi

Publisher: Vishwavidyalaya Prakashan

Description

लोकगीतों के संदर्भ और आयाम

अछोर क्षितिज तक फैला अनन्त आकाश है–लोकगीतों का। अतल सागर जैसी गहराई है–लोकगीतों की। जंगल में उसे पेड़-पौधों की तरह अनादि है–इनका इतिहास। हृदय से निकले स्वर गीत बन गये, संगीत बन गये। समग्र जनजीवन के जीवन्त चित्र प्रस्तुत करते थे लोकगीत भारत की लोक संस्कृति के चित्रपट हैं।

लोकगीतों का संक्षिप्त परिचय, उसके प्रकार, विभिन्न प्रदेशों के संस्कार गीत, ऋतुओं के, व्रत-त्योहारों के, विभिन्न जातियों के, श्रमिकों के, बालक–बालिकाओं के, नृत्य के, विभिन्न रसों के, धार्मिक भावना के तथा किसी भी समय गाये जाने वाले गीतों का अध्ययन ग्यारह अध्यायों में प्रस्तुत किया गया है।

लोक जीवन तथा लोक संस्कृति पर आधारित लोकगीतों के विविध आयामों का अध्ययन इस ग्रन्थ की विशेषता है।

 

कोश शैली में विवेचित माटी के गीत

भारतीय संस्कृति की अनूठी धरोहर–लोकगीत। काव्य रस से ओत-प्रोत, स्वर–सने, लय-लसे, हृदय तल से उभरे, सर्वथा मनोहारी। विविधता में एकता के साक्षात् प्रतीक। भाषाएँ भिन्न, बोलियाँ विभिन्न, किन्तु विषयवस्तु, स्वर-संयोजन तथा लय-प्रवाह में लगभग समानता। इनकी लघुकाय धुनों को सुनकर ‘बिहारी सतसई’ विषयक यह उक्ति सहज ही मानस में गूँज उठती है–

सतसैया के दोहरे, ज्यों नावक के तीर,

देखन में छोटे लगैं, घाव करें गंभीर।

परम्परा से प्राप्त और जन-जीवन से जुड़े इन लोकगीतों में निहित सरस साहित्य को उजाहर करने और उन्हें सामाजिक प्रतिष्ठा दिलाने का प्रथम श्रेय है–हिन्दी के लब्धप्रतिष्ठ कवि पं० रामनरेश त्रिपाठी को। उन्हें इन गीतों के प्रति आकृष्ट किया एक रोचक घटना ने। पूर्वी उत्तर प्रदेश की कुछ ग्रामीण महिलाएँ, अपने परदेसी पतियों को विदा करने, रेलवे स्टेशन पर आई हुई थीं। ‘आज के बिछुड़े न जाने कब मिलेंगे’ इस वियोग व्यथा से आक्रान्त वे फूट-फूट कर रोये जा रही थीं। ट्रेन आई और उनके प्रियतमों को लिये आँखों से ओझल हो गई। कुछ देर तक तो वे महिलाएँ भींगी आँखों से उस भागती ट्रेन को निहारती रही, पर जब गाड़ी दृष्टि से परे हो गई तो उनका वह विलाप, आलाप में परिणत हो गया। वे गाने लगीं–‘रेलिया सवति, पिया को लिये जाय रे’। स्टेशन पर बैठे त्रिपाठीजी यह परिवर्तित परिदृश्य देख रहे थे। रेल से सौत की उपमा ? कितनी सटीक कितनी विमुग्धकारी ? त्रिपाठीजी का कवि हृदय इस अनुपम अभिव्यक्ति से अभिभूत हो उठा। उसी क्षण उन्होंने ठान लिया कि वे इन लोकगीतों का संग्रह एवं प्रकाशन कर जन-जन तक पहुँचाएँगे। उनका वह ऐतिहासिक संकल्प मूर्तिमान हुआ, उनकी ‘कविता कौमुदी’ के चौथे भाग में, लोकगीतों के संग्रह में। त्रिपाठीजी का वह अभिनव प्रयास, भावी शोधकों के लिये पथ का दीप बन गया–प्रेरक और मार्गदर्शक।

लोकगीतों में समाहित काव्य रस कितना मधुपगा, कितना विनोदात्मक होता है, इसकी कुछ झलकियाँ–

शाम हो चली है। एक युवक चरवाहा अपने ढेरों के साथ थका-माँदा जंगल से घर की ओर आ रहा है। दिन तो उसने रूखी-सूखी रोटियाँ खाकर बिता दिया था, किन्तु अब वह भूख से बेहाल हो उठा है। पास से गुजरती एक यौवनभार से बोझल सुन्दरी को देख वह कराह उठता है और फिर उसकी तड़प मुखर हो उठती है, उसके इस ‘बिरहा’ में–

भुखिया क मारी विरहा बिसरिगा, भूलि गई कजरी कबीर,

देखि के गोरी क मोहनी मुरतिया, उठे न करेजवा में पीर।

भूख ने अब उसे बेसुध कर दिया है। न उसे मादक पावस में गाया जाने वाला ‘विरहा’ याद आ रहा है और न पावस की प्रियतमा ‘कजरी’। यही नहीं ‘फागुन मस्त महीना’ में गाया जाने वाला ‘कबीर’ भी वह भूल गया है। और तो और, चढ़ती जवानी में भी, उस चरवाहे को भूख ने इस कदर बेहाल कर दिया है कि गोरी की मोहनी मूरत देखकर भी उसके कलेजे में पीर नहीं उठती। ‘भूख’ का ऐसा सटीक, सार्थक और मर्मवेधी शब्द–चित्रण शायद ही अन्यत्र उपलब्ध हो।

युवती भी मनचली थी। चुटकी लेती हुई बोली– मरो तुम भूखे। मैं तो अपने प्रियतम को ऐसा भोजन कराऊँगी कि तुम उसका सपना भी नहीं देख सकते। जानते हो, वह क्या होगा ? और फिर नहले पर दहला जड़ते हुए गा उठी–

तन मोरा अदहन, मन मोरा चाउर

नयन मूँग के दाल

अपने बलम के जेवना जेंवइबे

बिनू अदहन बिनू आग।

मेरी दहकती देह उबाल खाता पानी है, मेरा मदभरा मन चावल है और मेरे नशीले नयन मूँग की दाल हैं। इन तीनों के मिश्रण से मैं अपने प्रियतम को ऐसा खाना खिलाऊँगी कि वह सर्वरूपेण तृप्त हो जायेगा। मुझे न तो आग की अपेक्षा है, न ही अदहन की। ठेठ बोली में उमड़ते यौवन का कितना मुग्धकारी शब्द चित्रण है, इस गीत में।

सावन–भादों की कजरारी भीगी रातें जब विरहदग्धा नायिका को नागिन-सी डँसने लगती हैं तो सूरदास की यह उक्ति साकार हो उठती है–प्रिय बिनु नागिन कारी रात’। और परदेसी प्रियतम की याद से आकुल वह विरहिणी उड़ेल देती है अपनी कसक, अपनी टीस, अपनी चिरसंगिनी इस कजली में–

गरजे बरसे रे बादरवा, प्रिय बिन मोंहे ना सुहाय।

और मादक चैत ? उसकी तो कल्पना करके ही विरहिणी सिहर उठती है। उसके आगमन की आशंका से त्रस्त मनोव्यथा मुखरित हो उठती है इस ‘चैती’ में–

आयत चैत उतपतिया हो रामा, पिया घर नाहीं।

सच पूछा जाय तो ये लोकगीत हमारे साहित्य की अमूल्य निधि हैं। उनके भीतर से हमारा इतिहास झाँकता है। वे सही अर्थो में हमारे सामाजिक जीवन के दर्पण हैं। इतिहास शोधक, यदि इन लोकगीतों में निहित सामग्री की छान-बीनकर, समुचित विश्लेषण चयन कर उनका अपेक्षित उपयोग करें तो हमारा इतिहास कहीं अधिक सजीव, संतुलित और सर्वांगीण बन जाएगा।

अब रही इन लोकगीतों के संगीत पक्ष की बात। वह भी कम रोचक नहीं। लोकगीतों की धुनों की, उनकी स्वर संरचना की तथा उनके लयप्रवाह की अपनी विशिष्टताएँ हैं। प्रथम, इनकी बंदिश प्रायः मध्यसप्तक में ही सीमित होती है, वह भी पूर्वार्ध में ही, उत्तरार्ध का स्पर्श यदा-कदा ही होता है। तार एवं मन्द्रसप्तक इनकी परिधि से बाहर ही रहते हैं, कुछ अपवादों को छोड़कर। इसलिये इनका गायन श्रमसाध्य भी नहीं होता। यों तो इन बंदिशों से सभी बारह स्वरों का प्रयोग होता है, किन्तु बहुलता शुद्ध स्वरों की ही होती है।

दूसरे, अधिकांश लोकगीत कहरवा, दादरा जैसे छोटे, किन्तु प्रवाहमान तालों में निबद्ध होते हैं। चाल इनकी अक्सर मध्यलय में ही होती है; विलम्बित एवं द्रुतलय में बहुत कम लोकगीत गाए जाते हैं। तीसरे, इन लोकगीतों के स्वर विन्यास और लयदारी में सहज प्रवाह होता है, कोई बनावटीपन नहीं। उनकी सहजता, उनकी भावप्रवणता ही उन्हें इतना चुटीला, इतना मर्मभेदी बना देती है। और अन्तिम, कितने ही लोकगीतों की बन्दिशे कुछ गिने-चुने लोकप्रिय रागों पीलू, भैरवी, तिलक-कामोद आदि के मोहक स्वरगुच्छों में होती हैं।

मेरा अनुमान है कि राग रचना की प्रेरणा भी इन्हीं रंजक लोकगीतों के स्वरगुच्छों से मिली होगी। मतंग मुनि ने राग की जो व्याख्या की है, उससे इस अनुमान की पुष्टि होती है–

योऽयं ध्वनिविशेषस्तु स्वरवर्ण विभूषितः

रंजको जनचित्तानां स रागः कथितो बुधैः

लोकगीतों की विशिष्ट धुनों ने कलाकार की कल्पना को कुरेदा होगा और उसने ‘स्वर’ (आरोह-अवरोह), तथा वर्ण (रोचक गायन प्रक्रिया) से विभूषित कर उन्हें जनचित्तरंजक बनाकर ‘राग’ का जामा पहना दिया होगा। कुछ रागों के नाम जैसे भूपाली, जौनपुरी, पहाड़ी आदि इस तथ्य के स्पष्ट परिचायक हैं कि ये राग उन स्थानों की लोकप्रिय लोकधुनों से ही निर्मित और विकसित हुए होंगे।

पं० रामनरेश त्रिपाठी के ऐतिहासिक लोकगीत संग्रह के बाद से अब तक विभिन्न आंचलिक भाषाओं, बोलियों के लोकगीतों पर कितने शोधप्रबन्ध लिखे गये हैं किन्तु जहाँ तक मुझे ज्ञात है, इन प्रबन्धों में मुख्यतः उनके साहित्य पक्ष का ही विश्लेषण, विवेचन हुआ है। उनका सांगीतिक पक्ष प्राय: अनछुआ ही रह गया है।

डॉ० शान्ति जैन ने अपनी प्रस्तुत पुस्तक ‘लोकगीतों के संदर्भ और आयाम’ में पहली बार इन गीतों के साहित्यक सौन्दर्य के विश्लेषण विवेचन के साथ उनके सांगीतिक पहलुओं पर भी समुचित प्रकाश डाला है। बहुमुखी प्रतिभा की धनी शान्तिजी भाषाविद् और संगीत मर्मज्ञ दोंनो हैं। संस्कृत, हिन्दी तथा अनेक आंचलिक बोलियों पर इनका अच्छा अधिकार है। वह जानी मानी कवयित्री और गीतकार तो है ही, स्वयं एक उत्तम कोटि की गायिका भी है। अतः उन्होंने अपनी इस कृति में साहित्य और संगीत–लोकगीतों के दोनों पक्षों का समुचित, संतुलित और सर्वांगीण चित्र प्रस्तुत किया है। विभिन्न क्षेत्रों के बिखरे-पसरे लोकगीतों के संग्रह और फिर उनके मनन मंथन में उन्होंने कई वर्षों तक अथक परिश्रम किया है। फलतः उनका यह शोधपरक विश्लेषण और निरूपण हिन्दी भाषा में एक मील का पत्थर’ बनकर उभरेगा, ऐसा मेरा विश्वास है।

कोश शैली मैं लिखी, ऐसी अनुपम उपलब्धि एवं सार्थक कृति के लिये शान्तिजी को मेरी हार्दिक बधाई और स्नेहाशीष भी।

– समर बहादुर सिंह

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Hindi

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Publishing Year

2019

Pulisher

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