Thee.Hoon..Rahoongi…
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थी.हूँ..रहूँगी…
यह पहला मौक़ा है जब एक अपराध पत्रकार ने अपराध पर ही कविताएँ लिखी हैं। एनडीटीवी में बरसों अपराध बीट की प्रमुखता और बाद में ‘बलात्कार’ पर पीएच.डी. ने देश की इस विख्यात पत्रकार को महिला अपराध को एक अलहदा संवेदनशीलता से देखने की ताक़त दी। इसलिए इन कविताओं को संवेदना के अलावा यथार्थ के चश्मे से भी देखना होगा।
वर्तिका के लिए औरत टीले पर तिनके जोड़ती और मार्मिक संगीत रचती एक गुलाबी सृष्टि है और सबसे बड़ी त्रासदी भी। वह चूल्हे पर चाँद-सी रोटी सेंके या घुमावदार सत्ता सँभाले—सबकी आन्तरिक यात्राएँ एक–सी हैं। इस ग्रह के हर हिस्से में औरत किसी–न–किसी अपराध की शिकार होती ही है। ज़्यादा बड़ा अपराध घर के भीतर का, जो अमूमन ख़बर की आँख से अछूता रहता है। ये कविताएँ उसी देहरी के अन्दर की कहानी सुनाती हैं। यहाँ मीडिया, पुलिस, क़ानून और समाज मूक है। वो उसके मारे जाने का इन्तज़ार करता है और उसके बाद भी कभी–कभार ही क्रियाशील होता है।
वर्तिका की कविता की औरत थक चुकी है पर विश्वास का एक दीया अब भी टिमटिमा रहा है। दु:ख के विराट मरुस्थल बनाकर देते पुरुष को स्त्री का इससे बड़ा जवाब क्या होगा कि मारे जाने की तमाम कोशिशों के बावजूद वह मुस्कुराकर कह दे—‘थी.हूँ..रहूँगी…’।
Additional information
Authors | |
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Binding | Hardbound |
ISBN | |
Language | Hindi |
Pages | |
Publishing Year | 2012 |
Pulisher |
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