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Description
जलता हुआ गुलाब
बी.ए.करने के बाद टीनू को नौकरी मिल गयी होती तो क्या तब भी उसने शिव-सेना ज्वायन की होती। हरपाल को भी अभी तक काम नहीं मिला था। हो सकता है उसे सिख स्टूडेंट फेडरेशन या दमकली टकसाल का चुम्बक अपनी तरफ खींच चुका हो।
साम्प्रदायिकता की आग क्या इतनी तेज है कि इससे बचना कतई मुश्किल होता चला जायेगा ? वे कौन सी चीजें हैं जो टीनुओं और हरपालों को इस अन्धी नदी में झोंक रही है। इस तरह के कई प्रश्न उठाये हैं उपन्यासकार तरसेम गुजराल ने अपने इस नवीनतम उपन्यास में।
पंजाब की ज्वलंत समस्या पर आधारित हिन्दी के युवा कथाकार तरसेम गुजराल का एक सशक्त उपन्यास !
आभार
माता-(स्व.) भापाजी का और बहनों का।
गुरुबचन, अवतार जोंड़ा, मोहन सपरा, सिमर सदोष, राजेन्द्र चुघ, रमेश बत्तरा, सुरेन्द्र मनन, प्रचण्ड, नरेन्द्र निर्मोही, कमलेश भारतीय, सुरेन्द्र मंथन, कीर्ति केसर, जे.बी. सिंह घई, पाली और रमेन्द्र जाखूका, जिनसे चलती बहसें बहुत बल देती हैं।
विजय धवन (कुवैत), अक्षय शर्मा, नन्द किशोर वैद और सन्त प्रकाश सिंह का, जो मेरी धड़कनों में हैं।
वाणी प्रकाशन परिवार का, जिसमें लेखकों के लिए सहयोग की भावना है।
कुछ इस उपन्यास के बारे में
इस उपन्यास का एक ही पात्र है, पंजाब।
इस उपन्यास की एक ही प्रेरणा है, पंजाब।
इस उपन्यास की एक ही चिन्ता है, पंजाब।
इस उपन्यास का एक ही उद्देश्य है, पंजाब।
– तरसेम गुजराल
एक
जनवरी के अन्तिम दिन थे। कालिज के सायकिल स्टैण्ड पर वृक्षों के टूटे पत्ते बड़ी तादात में जमा थे। अविनाश हरदीप का इन्तजार कर रहा था।
उसे खयाल आया कि आज उसका एक सहकर्मी कह रहा था—‘‘प्यार एक अजीब किस्म की बीमारी है। इसके कीड़े ट्यूबरक्यूलोसिस की तरह साँसों में बिखर जाते हैं—इसका इलाज डब्ल्यू. एच. ओ. के पास भी नहीं है। सिर्फ यही हो सकता है कि आप आँखों पर पट्टी बाँधकर हैलीकाप्टर से घने जंगल में उतार दिये जायें।—सिर्फ भटकते रहें और इतने में जिन्दगी की शाम हो जाये।’’
‘‘बड़ा फिलासफर हो गया है यार।’’
‘‘फिलासफर नहीं, बीमार—।’’
‘‘चोट खाये लगते हो भाई।’’
और वह खिलखिलाकर हँस दिया।
अविनाश ने हरदीप को हिन्दी साहित्य समझाने में सहायता देना शुरू किया था। हरदीप एम.ए. के एग्जाम दे रही थी। एक दोस्त के अनुरोध पर अविनाश उसे साहित्य के अलग-अलग मुद्दों पर छोटा-मोटा भाषण पिला आता। पिछले हफ्ते उसने कुछ किताबें देख लेने का सुझाव दिया था। उसने कहा कि वह उसके साथ ही मार्कीट चलेगी और जो किताबें ठीक लगेंगी, खरीद ली जायेंगी। तय यह हुआ था कि अविनाश शनिवार ग्यारह बजे उसके कालिज आ जायेगा।
यह उसी की हिमाकत कहिए कि वह दस मिनट पहले से ही वहाँ मौजूद था और व्यर्थ ही गुजरते चेहरे के भाव पढ़ने में वक्त गुजार रहा था। इस बीच वह शायद तीन-चार बार घड़ी देख चुका था। उसे घड़ी की सुइयाँ इतनी धीमी कभी नहीं लगीं। खासकर ग्यारह बजे के बाद का समय तो व काट ही नहीं पा रहा था।
Additional information
Authors | |
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Binding | Hardbound |
ISBN | |
Language | Hindi |
Pages | |
Publishing Year | 2019 |
Pulisher |
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