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सोच क्या है ?
1981 में ज़ानेन, स्विट्ज़रलैंड तथा एम्स्टर्डम में आयोजित इन वार्ताओं में कृष्णमूर्ति मनुष्य मन की संस्कारबद्धता को कम्प्यूटर की प्रोग्रामिंग की मानिंद बताते हैं। परिवार, सामाजिक परिवेश तथा शिक्षा के परिणाम के तौर पर मस्तिष्क की यह प्रोग्रामिंग ही व्यक्ति का तादात्म्य किसी धर्म-विशेष से करवाती है, या उसे नास्तिक बनाती है, इसी की वजह से व्यक्ति राजनीतिक पक्षसमर्थन के विभाजनों में से किसी एक को अपनाता है। हर व्यक्ति अपने विशिष्ट नियोजन, ‘प्रोग्राम’ के मुताबिक सोचता है, हर कोई अपने खास तरह के विचार के जाल में फंसा है, हर कोई सोच के फंदे में है।
सोचने-विचारने से अपनी समस्याएं हल हो जाएंगी ऐसा मनुष्य का विश्वास रहा है, परंतु वास्तविकता यह है कि विचार पहले तो स्वयं समस्याएं पैदा करता है, और फिर अपनी ही पैदा की गई समस्याओं को हल करने में उलझ जाता है। एक बात और, विचार करना एक भौतिक प्रक्रिया है, यह मस्तिष्क का कार्यरत होना है; यह अपने-आप में प्रज्ञावान नहीं है। उस विभाजकता पर, उस विखंडन पर गौर कीजिए जब विचार दावा करता है, ‘मैं हिन्दू हूं’ या ‘मैं ईसाई हूं’ या फिर ‘मैं समाजवादी हूं’-प्रत्येक ‘मैं’ हिंसात्मक ढंग से एक-दूसरे के विरुद्ध होता है।
कृष्णमूर्ति स्पष्ट करते हैं कि स्वतंत्रता का, मुक्ति का तात्पर्य है व्यक्ति के मस्तिष्क पर आरोपित इस ‘नियोजन’ से, इस ‘प्रोग्राम’ से मुक्त होना। इसके मायने हैं अपनी सोच का, विचार करने की प्रक्रिया का विशुद्ध अवलोकन; इसके मायने हैं निर्विचार अवलोकन-सोच की दखलंदाज़ी के बिना देखना। ‘‘अवलोकन अपने आप में ही एक कर्म है’’, यही वह प्रज्ञा है जो समस्त भ्रांति तथा भय से मुक्त कर देती है।
Additional information
Authors | |
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Binding | Paperback |
ISBN | |
Language | Hindi |
Pages | |
Publishing Year | 2018 |
Pulisher |
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