Prano Ka Sauda
₹130.00 ₹125.00
- Description
- Additional information
- Reviews (0)
Description
प्राणों का सौदा
‘प्राणों का सौदा’ लेखक के तेरह लेखों का संग्रह है। इनमें से कई प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में भी प्रकाशित हो चुके हैं।
इस संग्रह के दो लेख-‘अपमानजनक मृत्यु’ और ‘रुद्रप्रयाग का आदमखोर’ किसी पुस्तक के आधार पर नहीं है। शेष लेख चैडविक की Hunters and the Hunted, मेजर फोरन की Kill or be killed, लेफ्टिनेंट सरले की Dwellers in the jungle नोलैज़ की The Terrors of the Jungle and in the Grip of Jangle पुस्तकों में वर्णित लेखों और वाइल्ड वर्ल्ड’ अंग्रेजी पत्रिका में छपे दो लेखों के आधार पर हैं। लेखक पुस्तकों और पत्रिका के लेखकों तथा प्रकाशकों का बड़ा ही कृतज्ञ है।
परिचय लिखते समय मुझे स्व. ब्रजमोहन वर्मा की याद आ रही है। अब से सात वर्ष पूर्व ‘शिकार’ की भूमिका लिखने के बाद पंडित बनारसीदास चतुर्वेदी और स्व. वर्माजी के साथ मैं चाय पी रहा था। अपने विकार संबंधी संस्मरणों को छापने के लिए नाम की आवश्यकता थी। पं. पद्मसिहं शर्माजी से मैंने पूछा कि कोई उपयुक्त नाम बताइए, मगर कोई आकर्षक नाम न सूझा। अंत में सबको मेरे प्रस्तावित नाम शिकार को मानना पड़ा-यद्यपि मैं स्वयं उस नाम से न तब संतुष्ट था और न अब। अस्तु, ‘शिकार’ नामकरण हो जाने के बाद और मशीन पर फर्मा चढ़ जाने के बाद अन्य पुस्तकों का जिक्र हुआ और स्व. वर्माजी ने एक नाम पेश किया, शिकार संबंधी मेरी दूसरी किताब के लिए, और वह नाम था ‘प्राणों का सौदा’। अफसोस है, प्राणों का सौदा का नामकरण करने वाले व्यक्ति अपने बीच में नहीं है। अगर साहित्य-शिखर पर वेग से बढ़ने वाला वह व्यक्ति वर्माजी आज होते, तो यह पुस्तक उसकी देख-रेख में छपती। पर विधि की गति वक्र है ! उपर्युक्त शब्द लिखने से, आशा है, वर्माजी की आत्मा, उनके छोटे भाई राजन बाबू, उनके मित्रों और ‘विशाल भारत’ परिवार को लेखक की भाँति कुछ सांत्वना मिलेगी।
शिकार संबंधी लेख लिखने में मुझे ‘विशाल भारत’ के पाठक और अन्य हिन्दी-साहित्य-सेवियों से जो प्रोत्साहन मिला, वह शब्दों में अंकित नहीं किया जा सकता। इस पुस्तक के लिखने का श्रेय पाठकों की अभिरुचि, मित्रों के प्रोत्साहन और हिंदी साहित्य के गौरव को मिलना चाहिए। यों लेखक की भी प्रशंसा हुई है, उसी तरह, जिस प्रकार गेहूं के साथ बथुआ को भी पानी लग जाता है।
श्रीराम शर्मा
भूमिका
किसी भी साहित्य-सेवी को-विशेषकर वर्तमान परिस्थिति में, हिंदी साहित्य-सेवी को इससे अधिक और क्या आत्मसंतोष होगा कि उसे साहित्य के किसी अंग विशेष का जन्मदाता माना जाए। हिंदी में शिकार मेरे विचार से प्रकृति संबंधी साहित्य के पितृत्व के गौरव का ख्याल करके लेखक कभी-कभी यह सोचने लगता है कि यह सब उसके पूर्वजन्म के किसी पुण्य का फल है, वर्ना हिंदी के विशाल क्षेत्र में किसी अन्य योग्यतम लेखक के माथे पर यह सेहरा बंधता। पर इस प्रशंसा-प्राप्ति से पाठक विश्वास करे, लेखक का माथा नहीं फिरा, वरन् उससे तो उसमें नम्रता और संकोचशीलता की मात्रा बढ़ गई है। हां, एक बात का दु:ख उसे जरूर है और वह यह कि गत पंद्रह वर्षों में उसका कोई साथी-शिष्य नहीं-हिंदी साहित्य में उस विषय पर नहीं दिखाई दिया। कई मित्रों के प्रयास किया पर उनके लेखों में लेखन-कला की मौलिकता न आ पाई। और शायद वे थककर अथवा हतोत्साह होकर बैठ गए। मुख्य कारण यह था कि वे स्वयं प्रकृति के संपर्क में न आए थे। उन्होंने प्रकृति देवी को, आप चाहें तो उसे प्रकृति परी कहें उन आँखों से नहीं देखा, जिनसे उन्हें देखना चाहिए। प्राकृतिक दृश्यों के चित्रण के लिए राइफल और बंदूक की जरूरत नहीं है। जरूरत है सूक्ष्म कल्पना शक्ति, कोमल भावना, निरीक्षण बुद्धि और अनुभूति की।
लेखक के शिकार अथवा प्राकृतिक-चित्रण संबंधी लेखों का इतना मान शायद इसलिए हुआ है कि उनका साहित्यिक महत्त्व है, यद्यपि संकोचवश उसे यह लिखना पड़ता है कि उसके गत 20-21 वर्ष के साहित्यिक जीवन में शिकार-साहित्य का बहुत कम भाग है। पर किसी चीज के अभाव में जब कोई चीज आती है, तब उस पर उसकी आँखें लग ही जाती हैं। हां, लेखक ने शिकार को साहित्यिक और दार्शनिक जामा पहना दिया है। कोई भी चीज जब तक कलापूर्ण नहीं होती, तब तक उसका विशेष महत्त्व नहीं होता। बढ़िया से बढ़िया सागौन की लकड़ी पड़ी हो, पर जब तक कुशल बढ़ई उससे कोई बढ़िया कुर्सी या मेज या कलमदान नहीं बनाता, तब तक उसका कोई विशेष महत्त्व नहीं होता-आकर्षण का तो कोई सवाल ही नहीं उठता। बस लेखक ने शिकार-जीवन की घटनाओं को साहित्यिक समाज की चीज बनाने की कोशिश की है।
पाठक पूछ सकते हैं कि ‘शिकार’ और ‘प्राणों का सौदा’ में क्या अंतर है ? क्या ‘प्राणों का सौदा’ मौलिक रचना है ? क्या उसका कोई साहित्यिक महत्त्व है ? ‘शिकार’ आपबीती घटनाओं का चित्रण है और ‘प्राणों का सौदा’ कलाविद् और मशहूर शिकारियों पर बीती घटनाओं अथवा दुर्घटनाओं का चित्रण है। अंग्रेजी में छपे उन लेखों को आप पढ़ें, तो आपको मालूम होगा कि मूल घटनाओं में तनिक भी अंतर-घटाव-बढ़ाव नहीं है। ढांचा वही है, रत्तीभर का फर्क नहीं; पर लेखन-शैली और दार्शनिक तथा साहित्यिक विश्लेषण ने संग्रह को एक नवीनतम चीज बना दिया है, चिंता भय सुख और दु:ख संबंधी मनोविकारों को अंकित करने से कथा में जान पड़ जाती है। यदि ऐसा न हो, यदि मनोविकार चित्रण की आवश्यकता न हो, तो विश्व के लिए साहित्य भी फजूल है। रामायण की घटना की कितनी है; पर काव्य का रूप देने से उसका जो महत्त्व हुआ है, उसे हम खूब समझते हैं।
‘प्राणों का सौदा’ का साहित्यिक महत्त्व क्या है-इसका उत्तर साहित्य-सेवी ही दें। मैं इस विषय में कुछ न लिखूँगा।
हिंदी साहित्य के नाते लगे हाथ, एक बात और लिख दूँ। हिंदी शिकार साहित्य अभी सागर की एक बूंद के बराबर भी नहीं और शिकार-साहित्य जीव-जंतुओं के रहन-सहन संबंधी ज्ञान के बिना अधूरा ही समझना चाहिए। अंग्रेजी में तो हाथी, शेर और अन्य जानवरों पर बढ़िया पुस्तकें हैं; पर हिंदी वालों में भी धनी-मानी हैं और वे शेर मारने के रैकर्ड तोड़ने पर तुले हुए हैं, पर उनसे यह न होगा कि अपने अनुभवों को लिखकर या लिखाकर उन्हें पुस्तक का रूप दें दें। शेर, चीतल, बघेरा, सूअर और हाथी पर इतनी सुंदर पुस्तकें लिखी जा सकती हैं कि लेखक हिंदी साहित्य में अमरता प्राप्त कर सकता है। जंगली जानवरों को मारकर रैकार्ड-कोरे रैकार्ड तोड़ने की बात में तो बधिकता की बू है।
अनेक हिंदी-साहित्य-सेवी इंग्लै़ड गए हैं पर इन पंक्तियों के लेखक ने हिंदी में ‘झील प्रदेशों’ (Lake district) का वर्णन नहीं पढ़ा। तात्पर्य यह कि हम में अभी प्रकृति-दर्शन और प्रकृति का मूल्य आंकने की बहुत कमी है और इसी कमी के कारण, किन्हीं अंशों में, ऐसे साहित्य का निर्माण नहीं हो रहा। परंतु आशा है, हमारे नवयुवक लेखक और कवि इस ओर ध्यान देंगे और साहित्य की त्रुटि-पूर्ति और अपनी ख्याति की वृद्धि करेंगे।
Additional information
Authors | |
---|---|
Binding | Hardbound |
ISBN | |
Language | Hindi |
Pages | |
Publishing Year | 2011 |
Pulisher |
Reviews
There are no reviews yet.