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Description
आँख की किरकिरी
‘आँख की किरकिरी’ रवीन्द्रनाथ ठाकुर के बंगला उपन्यास ‘चोखेर बालि’ का हिन्दी अनुवाद है। कई कारणों से इस उपन्यास की गिनती गुरुदेव की सर्वोत्कृष्ट रचनाओं में होती है। इसका प्रथम प्रकाशन 1902 ई. में हुआ था। इस प्रकार यह उपन्यास सच्चे अर्थों में भारत का पहला आधुनिक उपन्यास है। यद्यपि रवीन्द्रनाथ ने ऐसे अनेक उपन्यास लिखें हैं जो ‘चोखेर बालि’ से अधिक विख्यात है, परन्तु कथाकार का जो रूप हमें इसमें मिलता है वह अन्यत्र नहीं। अन्य किसी उपन्यास में उन्होंने मानव-जीवन के चित्रण में ऐसे मृदुल और नीरव व्यंग्य का समावेश नहीं किया है। प्रणय और यौन-वासना का अविच्छिन्न सम्बन्ध को उन्होंने किसी उपन्यास में ऐसी प्रकट सहानुभूति नहीं दी है। इस उपन्यास में ही उन्होंने वासना के पंक में प्रस्फुटित होने वाले प्रेम के निर्मल शतदल की झाँकी दिखाई है। गुरुदेव द्वारा निर्मित नारी चरित्रों में विनोदिनी सबसे अधिक यथार्थ, सबसे अधिक विश्वसनीय और सबसे अधिक जीवन्त है।
आँख की किरकिरी
विनोदिनी की मां हरिमती महेन्द्र की मां राजलक्ष्मी के पास जाकर जैसे धरने पर बैठ गई। दोनों एक ही गाँव की रहने वाली थीं। बचपन में साथ ही खेली थीं।
राजलक्ष्मी महेन्द्र के पीछे पड़ गईं—‘‘बेटा महेन्द्र, इस गरीब की बिटिया का उद्धार करना ही पड़ेगा। सुना है, लड़की बड़ी सुन्दर है, फिर किसी मेम से लिखी-पढ़ी भी है। तुम लोगों की आजकल की जो रुचि है, उससे मिलेगी।’’
महेन्द्र बोला—‘‘मुझ जैसे आजकल के लड़के तो और भी बहुत से हैं, मां !’’
राजलक्ष्मी तुनककर बोली—‘‘तुझमें यही तो दोष है, तुझसे विवाह की चर्चा करना ही मुश्किल है। फौरन ही तरक करने लगते हो।’’
महेन्द्र ने कहा—‘‘मां, इसे छोड़कर भी दुनिया में बातों की कमी नहीं है, सो यह कोई वैसा दोष नहीं।’’
महेन्द्र के पिता उसके बचपन में ही चल बसे थे। मां से महेन्द्र का बरताव साधारण लोगों-सा न था। बाईस के लगभग उम्र हुई, तब एम.ए. पास करके डॉक्टरी पढ़ना शुरू किया, मगर इस उम्र में भी मां से रोज-रोज उसके रूठने-मचलने, जिद करने की आदत नहीं गई। कंगारू के बच्चे की तरह गर्भ से बाहर आकर भी उसके बाहरी थैलै में टंके रहने की उसे आदत हो गई है। मां के बिना आहार-विहार, आराम, विराम कुछ भी नहीं हो पाता।
अबकी बार जब मां विनोदिनी के लिए बुरी तरह उसके पीछे पड़ गई तो हारकर महेन्द्र बोला—‘‘अच्छा, एक बार लड़की को देख लेने दो !’’
लड़की देखने जाने का दिन आया तो कहा, वह बोला—‘‘देखकर भी क्या होगा ? विवाह मैं तुम्हें खुश करने के लिए कर रहा हूं, भली-बुरी का विचार ही बेकार है।’’
कथन में जरा क्रोध की आंच थी, मगर मां ने सोचा—‘शुभ-दृष्टि’ के समय जब मेरी पसन्द से महेन्द्र की पसन्द मिल जाएगी, तो उसका रुख स्वयं नर्म हो जाएगा। राजलक्ष्मी ने बेफिक्र होकर विवाह का दिन तय किया। दिन जैसे-जैसे करीब आने लगा, वैसे-वैसे महेन्द्र का मन उत्कंठित हो उठा और अंत में दो-चार दिन पहले ही वह कह बैठा—‘‘नहीं मां, यह मुझसे हर्गिज न होगा।’’
बचपन से महेन्द्र हर तरह की सुविधाएँ पाता रहा है। उसकी हरेक इच्छा पूर्ण हुई है, चाहे दैवयोग से, चाहे मां के लिए, इसलिए उसकी इच्छा का वेग उच्छृंखल है। कोई दबाव उसे बर्दाश्त नहीं होता। अपनी स्वीकृति और दूसरों के आग्रह ने उसे निहायत बेबस कर दिया है, इसीलिए विवाह के प्रस्ताव के प्रति नाहक ही उसकी वितृष्णा बहुत बढ़ गई और विवाह का दिन नजदीक आ गया तो उसने बेझिझक इन्कार कर दिया।
महेन्द्र का जिगरी देस्त था बिहारी, वह महेन्द्र को ‘भैया’ और उसकी मां को ‘मां’ कहा करता था। महेन्द्र की मां उसे स्टीमर के पीछे जुड़ी डोंगी—जैसा महेन्द्र का एक जरूरी भारवाही सामान-सा मानती थीं और वैसी ही उस पर ममता भी रखती थीं। वे बिहारी से बोलीं—‘‘बेटे, यह तो अब तुम्हें ही करना है, नहीं तो उस बेचारी लड़की…।’’
बिहारी ने हाथ जोड़कर कहा-‘मां, यह मुझसे न होगा। अच्छी न लगी कहकर जो मिठाई महेन्द्र छोड़ देता है, तुम्हारे कहने से वह मिठाई मैंने बहुत खाई है, मगर लड़की की बाबत मुझसे यह नहीं हो सकता।’’
Additional information
Authors | |
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Binding | Paperback |
ISBN | |
Language | Hindi |
Pages | |
Publishing Year | 2019 |
Pulisher |
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