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Description
व्यंग्य के पांच स्वर
समकालीन व्यंग्य साहित्य में बहुत हलचल है। और यह सुखद है। नये-नये विषयों पर अखबारों और पत्रिकाओं में व्यंग्य छपते रहते हैं। जाहिर है सबको एक ही श्रेणी में नहीं रखा जा सकता, लेकिन इतने लोग अभिव्यक्ति के लिए उत्सुक हैं यह पता चलता है। यह भी पता चलता है कि एक रेखांकित करने योग्य विभाजन दिख रहा है। उस पर बात करने से पहले एक जरूरी बात। अखबार में छपने से ही कोई चीज अखबारी नहीं हो जाती और पत्रिका में छपने भर से कोई रचना साहित्य नहीं हो जाती। यह तो रचना और रचनाकार की क्षमता, मनोदशा, प्रवृत्ति पर निर्भर करता है। अब रेखांकित करने वाला तथ्य। वह यह है कि जैसे मंचीय कविता और साहित्यिक कविता के बहुत स्पष्ट व स्वीत रूप बन चुके हैं, वैसे ही अखबारी व्यंग्य और साहित्यिक व्यंग्य के दो रूप सामने हैं। दोनों अपनी अपनी तरह से जनमन को संबोधित कर रहे हैं। उनका मनोरंजन कर रहे हैं। फिर भी, इनके बीच जो स्पष्ट विभाजन है उससे मुँह नहीं चुराया जा सकता।
यह तर्क अशुद्ध और अपरिपक्व है कि परसाई, शरद जोशी, त्यागी, श्रीलाल शुक्ल भी तो कॉलम लिखते थे। …लिखते थे। तो क्या केवल इस आधार पर आज के सारे ऐसे लेखक इन कालजयी रचनाकारों जैसे मान लिए जाएँ ? यह कातर्क है। ऐसे तो मुंबई में रहने वाली सारी गायिकाएँ लता मंगेशकर हो जाएँगी! कथाकार और आलोचक दूधनाथ सिंह ने एक बार बहुत दिलचस्प बात कही थी। उन्होंने कहा था कि बहुत सारे लेखक केवल पत्रिकाओं का पेट भरने के लिए लिखते हैं। व्यंग्य में भी बहुतेरे पेटभराऊ लेखक मौजूद हैं। यह बात अखबारों से जुड़े वे व्यक्ति भी मानेंगे जो पन्ने पर व्यंग्य देखते हैं। …अच्छा या खराब लिखना अपनी जगह है, मगर खराब को अच्छा साबित करने की साजिश या जिद आखिरकार विधा का ही नुकसान करती है। अखबारीपन या तुरंता मनोदशा से लैस व्यंग्य टिप्पणी को साहित्य कहने से हमको बचना चाहिए। तात्कालिक प्रतिक्रियाओं का अपना अलग महत्व है। लेकिन इनको साहित्य के मुकाबिल नहीं लाना चाहिए। …और आज भी गोपाल चतुर्वेदी जैसे लेखक यह बता रहे हैं कि तात्कालिक टिप्पणी को कैसे रचना में तब्दील किया जा सकता है।
जाहिर है, आप लिख क्या रहे हैं, इस पर बात होनी चाहिए। बात नहीं होती इसके लिए केवल लेखक जिम्मेदार नहीं। व्यंग्य में आलोचक नाम की संस्था है ही नहीं। अब कुछेक युवा नाम उभर रहे हैं। इनके अलावा जो समीक्षा आदि दिखती है वह रचनाकारों द्वारा की जाने वाली क्षतिपूर्ति है या सांत्वना है। आलोचक विहीन माहौल में अवसरवादी, जुगाड़ी, मुखर और तात्कालिक लोग अपनी तरह से चीजों को आकार देते रहते हैं। और तब अच्छे और न अच्छे का विवेक धुंधलाने लगता है। तब बताना पड़ता है कि देखो, यह है व्यंग्य की वह परंपरा जो हमारे अग्रजों की रचनाधर्मिता से अनुप्राणित है।
यह संतोष की बात है कि समकालीन हिंदी व्यंग्य अनेक रचनात्मक और गैर साहित्यिक चुनौतियों का सामना करते हुए गतिशील है। जितने सार्थक व्यंग्यकार आज लिख रहे हैं, उनकी आवाज अलग से पहचानी जाती है।
मसलन, बीच में कुछेक वर्षों का अंतराल आ जाने के बावजूद अंजनी चौहान का विषय वैविध्य और भाषा से काम लेने की क्षमता अद्भुत है। अनेक कारणों से उनके लिखे छपे का बहुत कम सुरक्षित रह सका है। पिछले कुछ समय से वे फिर सक्रिय हुए हैं। और व्यंग्य उपन्यास पूरा कर रहे हैं।
ज्ञान चतुर्वेदी ने व्यंग्य के विभिन्न रूपों प्रारूपों में अपनी कालजयी उपस्थिति का निरंतर एहसास कराया है। वे व्यंग्य के निर्विवाद शिखर व्यक्तित्व हैं।
प्रेम जनमेजय व्यंग्य को सर्वतोभावेन समर्पित लेखक हैं। रचना, संपादन, विमर्श, संयोजन आदि के द्वारा उन्होंने व्यंग्य को नये आयाम दिए हैं।
सुरेश कांत ने व्यंग्य में रचना और आलोचना का सहभाव संभव किया है। साहस के साथ अभिव्यक्ति उनको विशिष्ट बनाती है। विषय वैविध्य उनमें भी सुखद है।
सुशील सिद्धार्थ ने अपनी संवेदना और संरचना से समकालीन व्यंग्य में एक महत्वपूर्ण स्थान बनाया है। व्यंग्य रचना के अनेक तत्व उनकी रचनाओं में नयी परिभाषा हासिल कर सके हैं।
प्रस्तुत संकलन ‘व्यंग्य के पाँच स्वर’ में इन पाँच व्यंग्यकारों की कुछ विशिष्ट रचनाएँ पाठकों को अच्छी लगेंगी। सबका स्वर अलग से पहचाना जा सकता है। व्यंग्य के समृद्ध संगीत में इन स्वरों से जो परिवेश बनता है वह स्वागत योग्य है।
Additional information
Authors | |
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Binding | Hardbound |
ISBN | |
Language | Hindi |
Pages | |
Publishing Year | 2017 |
Pulisher |
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