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शूर्पणखा और शबरी
प्रथम प्रवचन
एहि बिधि गए कछुक दिन बीती।
कहत बिराग ग्यान गुन नीती।। 3/16/2
अनंत वात्सल्यमई जगज्जननी श्री सीताजी और परम् करुणामय श्री रामभद्र की महती अनुकंपा से पुन: इस वर्ष यह सुअवसर मिला है कि जब भगवान लक्ष्मीनारायण के इस पावन प्रांगण में प्रभु और उनके भक्तों के चरित्र की चर्चा की जा सके। यह हमारे बिरला दंपत्ति सौजन्यमई श्रीमती सरलाजी बिरला तथा श्री बसंतकुमारजी बिरला की श्रद्धा-भावना का परिणाम है कि विगत अनेक वर्षों से यह कथाक्रम निर्बाध रूप से संपन्न हो रहा है। प्रभु ने अपने इस कार्य के लिए उन्हें निमित्त बनाकर जो धन्यता प्रदान की है इसके लिए वे प्रशंसा के पात्र हैं।
पिछले वर्ष अरण्यकाण्ड का वह प्रसंग चल रहा था जिसमें भगवान राम श्री लक्ष्मणजी के द्वारा पूछे गए प्रश्नों का पहले संक्षेप में सारगर्भित उत्तर देते हैं, फिर उसके पश्चात् दृश्य परिवर्तित होता है और घटनाओं का एक अनोखा क्रम उपस्थित हो जाता है। ऐसा लगता है कि प्रभु ने अभी-अभी वाणी के द्वारा जो उपदेश दिया था उसे ही वे इस लीला के माध्यम से बड़े विस्तार से साकार रूप में प्रस्तुत कर देते हैं।
एक दिन लंकाधिपति रावण की बहन सूर्पणखा दण्डकारण्य के उस स्थल-पंचवटी में आती है जहां भगवान राम श्रीसीताजी और श्री लक्ष्मणजी के सहित निवास कर रहे थे। यही सूर्पणखा जनकनंदिनी श्रीसीता और भगवान राम के वियोग का कारण बनती है। इसी दण्डकारण्य में ही एक और नारी पात्र शबरीजी भी निवास करती हैं जो भगवान राम को वह उपाय बताती हैं जिससे भगवान राम और श्री सीताजी का पुनः मिलन होता है।
भगवान राम जब श्रीसीताजी की खोज में निकलते हैं तो इस क्रम में वे भक्तिमती शबरीजी के आश्रम में आते हैं और वे शबरी जी से प्रश्न करते हुए कहते हैं कि-
जनकसुता कइ सुधि भामिनी।
जानहि कहु करिबरगामिनी।। 3/35/10
क्या आप सीताजी की सुधि जानती हैं ? और यदि जानती हैं तो बताएँ कि उन्हें पाने का उपाय क्या है ? भगवान राम का प्रश्न सुनकर शबरीजी बड़े संकोच और विनम्रता से उन्हें जो उपाय बताती हैं, भगवान राम उसका पालन करते हैं और अंततोगत्वा सीताजी को पाने में सफल होते हैं। इस प्रसंग के माध्यम से जो संकेत-सूत्र हमें प्राप्त होते हैं वे बड़े महत्वपूर्ण हैं।
मनुष्य के सामने जो एक शाश्वत समस्या रही है, वह समस्या है दुख की। प्रत्येक व्यक्ति सुख ही सुख पाना चाहता है, पर न चाहने पर भी दुख आ ही जाते हैं। ऐसी स्थिति में ‘दुख के कारण क्या हैं तथा उसके निवारण के क्या उपाय हैं ?’ यह जानने की जिज्ञासा व्यक्ति के हृदय में स्वाभाविक रूप से होती है। ‘मानस’ में भगवान राम और लक्ष्मणजी के संवाद के माध्यम से इसी की ओर संकेत किया गया है।
समाज में एक बड़ा प्रचलित शब्द है-‘माया’ और यह माना जाता है कि माया ही दुख का कारण है। भगवान राम भी लक्ष्मणजी के प्रश्नों का उत्तर यही कहकर देते हैं कि माया का एक रूप ऐसा भी है जो दुख का मूल कारण है। वे कहते हैं कि-
एक दुष्ट अतिसय दुखरूपा।
जा बस जीव परा भवकूपा।। 3/14/5
प्रत्येक व्यक्ति व्यवहार में बार-बार इस ‘माया’ शब्द का प्रयोग करता रहता है, पर सचमुच इसका स्वरूप क्या है ? क्या यह कोई ऐसी नारी है जो व्यक्ति को अपने बंधन में बाँधकर कष्ट दिया करती है ? कई बार उसे एक साकार रूप में भी आरोपित कर दिया जाता है। पर वस्तुतः भगवान राम लक्ष्मणजी से माया की जो व्याख्या करते हैं उसका पूरा का पूरा लक्षण सूर्पणखा के चरित्र में दिखाई देता है। इसी प्रकार भगवान राम ने जिस भक्ति को सुख का मूल बताया था, उसका साकार रूप शबरीजी के चरित्र में दिखाई देता है। इसका तात्पर्य है कि माया रूपी सूर्पणखा दुख का कारण बनती है और भक्तिरूपा शबरी वह उपाय बताती हैं कि जिससे दुखों को दूर करने वाली भक्ति की प्राप्ति होती है।
शूर्पणखा और शबरी में एक अंतर और भी है। सूर्पणखा उस लंकाधिपति रावण की बहन है जो शक्तिशाली है, विद्वान है, तपस्वी है तथा जिसके जीवन में अनेकानेक विशेषताएँ और विलक्षणताएँ विद्यमान दिखाई देती हैं। पर शबरीजी के बारे में ऐसी किसी विशेषता का उल्लेख नहीं मिलता। ‘उनके पिता कौन थे, उनकी कौन-सी जाति थी, तथा उनके सबंधी कौन थे’ इसका भी वर्णन नहीं मिलता। यहाँ तक कि उनका नाम भी ठीक से ज्ञात नहीं है। जंगल में आभीर, जमन, किरात, खस व स्वपच आदि की तरह शबर नाम की भी एक जाति थी, इस नाते उन्हें ‘शबरी’ नाम प्राप्त हो गया। ‘मानस में यही कहा गया है कि-
जातिहीन अघ जन्म महि मुक्त कीन्हि असि नारि।
शबरीजी के जीवन में ऐसा कुछ भी नहीं है, व्यक्ति जिसका गौरवपूर्वक उल्लेख करना चाहता है।
प्रभु जनकनंदिनी सीता तथा लक्ष्मणजी के साथ चित्रकूट में आनंदपूर्वक निवास कर रहे थे। वे यदि चाहते तो वनवास की पूरी अवधि चित्रकूट में ही रहकर आनंदपूर्वक व्यतीत कर सकते थे। कैकेईजी ने भी उन्हें वन में निवास करने के लिए ही कहा था, अत: किसी भी वन में प्रभु रह लेते तो उनकी आज्ञा का पालन हो जाता। पर प्रभु स्वयं चित्रकूट की प्रेम और आनंदमई भूमि को छोड़कर आगे दण्डकारण्य की ओर प्रस्थान करने का निर्णय करते हैं।
गोस्वामीजी ने प्रभु के चित्रकूट निवास की अवधि के आनंद का वर्णन ‘मानस’ में किया है। गोस्वामी जी मानो जानते थे कि लोगों के मन में यह प्रश्न स्वाभाविक रूप से उठ सकता है कि ‘सीताजी राजमहल में पली-बढ़ी थीं, जहाँ दिव्य कोमल शय्या आदि सुख-सुविधा के सभी साधन उपलब्ध थे, अत: वन में उन्हें बड़े कष्ट उठाने पड़े होंगे ?’ इसीलिए गोस्वामीजी कहते हैं कि-
सिय मनु राम चरम अनुरागा।
अवध सहस सम बनु प्रिय लागा।। 2/136/4
चित्रकूट की यह भूमि सीताजी के लिए हजारों अयोध्या से भी अधिक सुख देने वाली थी। गोस्वामीजी यह भी कहते हैं कि-
सीय लखन जेहि बिधि सुखु लहहीं।
सोइ रघुनाथ करहिं सोइ कहहीं।। 2/140/1
भगवान प्रतिदिन यही प्रयास करते हैं कि जिससे श्रीसीताजी व लक्ष्मणजी को सुख मिले और वे प्रसन्न रहें। इस प्रकार जब ईश्वर ही निरंतर सुख देने के लिए व्यग्र हो जाए, तो फिर उस सुख और आनंद का कौन वर्णन कर सकता है ?
गोस्वामीजी ने चित्रकूट की बड़ी प्रशंसा की है। किसी ने उनसे पूछ दिया कि आप चित्रकूट की इतनी प्रशंसा क्यों करते हैं ? उसमें ऐसी क्या विशेषता है ? गोस्वामीजी ने कहा कि-
क्यों कहौं चित्रकूट-गिरि, संपत्ति,
महिमा-मोद-मनोहरताई।
तुलसी जहँ बसि लखन राम सिय
आनँद-अवधि अवध बिसराई। (गीतावली- 2/46/9)
जिस वन में रहकर भगवान राम आनंद की भूमि अयोध्या को भूल गए, उस चित्रकूट की महिमा का वर्णन भला मैं क्या कर सकता हूँ ? पर ऐसी दिव्य और आनंदमई चित्रकूट-भूमि का परित्याग कर भगवान राम ने दण्डकारण्य में जाने का निर्णय क्यों किया ? इसका एकमात्र कारण यही है कि संसार में मनुष्य-जीवन से जुड़े जो विविध पक्ष हैं उन सबको भगवान राम अपने लीला-चरित्र के द्वारा दिखलाना चाहते हैं। और इनसे जुड़ी हुई जो समस्याएँ हैं उन सबका क्या समाधान होता है, इसे भी बताना चाहते हैं।
भगवान राम लक्ष्मणजी को उपदेश देते हुए, जब माया की व्याख्या करते हैं तो यही कहते हैं कि-
तेहि कर भेद सुनहु तुम्ह सोऊ।
बिद्या अपर अबिद्या दोऊ।। 3/14/4
माया के दो रूप हैं-विद्या माया और अविद्या माया। फिर दोनों में क्या अन्तर है, यह बताते हुए प्रभु कहते हैं कि-
एक दुष्ट अतिसय दुखरूपा।
जा बस जीव परा भवकूपा।। 3/14/5
अविद्या माया दुख देने वाली है तथा इसी के कारण जीव इस संसार-कूप में पड़ा हुआ है।
इस संसार का परिचय समुद्र और नदी के रूप में भी दिया जाता है। पर गोस्वामीजी यहाँ इसे समुद्र या नदी न कहकर ‘कूप’ (कुआँ) कहते हैं। इसके पीछे भी एक सुंदर संकेत है। गोस्वामीजी मानो बताना चाहते हैं कि नदी और समुद्र के संदर्भ में व्यक्ति का पुरुषार्थ, भले ही एक सीमा तक ही हो, पर चल सकता है। वह अपने हाथ-पाँव चलाकर तैरने की चेष्टा कर सकता है, नाव की सहायता लेकर उसे खेकर पार जाने का यत्न कर सकता है। पर कुएँ में गिरे हुए व्यक्ति को कोई दूसरा निकालने वाला हो, तभी वह बच पाएगा। ठीक इसी प्रकार माया के कूप में पड़ा हुआ व्यक्ति एकमात्र भगवान की कृपा से ही बाहर आ सकता है। इसका अर्थ यही है कि अविद्या माया अत्यन्त दुखदाई है।
फिर प्रभु विद्या माया की व्याख्या करते हैं और बताते हैं कि-
एक रचइ जग गुन बस जाकें।
प्रभु प्रेरित नहिं निज बल ताकें।। 3/14/6
विद्या माया संसार का निर्माण करती है, पर यह निर्माण कार्य वह अपने बल पर नहीं, अपितु ईश्वर की प्रेरणा और शक्ति से करती है, ‘मानस’ में श्रीसीताजी के लिए भी ‘माया’ शब्द का प्रयोग किया गया है। मनु और शतरूपा की प्रार्थना पर जब भगवान श्रीसीताजी के साथ उनके सामने प्रगट होते हैं उस समय वे उनसे श्रीसीताजी का परिचय देते हुए कहते हैं कि-
आदिसक्ति जेहिं जग उपजाया।
सोउ अवतरिहि मोरि यह माया।। 1/151/4
यही वह आदिशक्ति माया हैं जो संसार का सृजन करती हैं।
इसका अभिप्राय है कि जहाँ एक ओर माया के द्वारा संसार का निर्माण होता है वहीं दूसरी ओर व्यक्ति को दुख भी माया के द्वारा ही प्राप्त होता है। पर दोनों में अंतर यही है कि एक यदि विद्या माया हैं तो दूसरी ओर अविद्या माया कहा गया है। श्रीसीताजी व लक्ष्मीजी विद्या माया हैं तथा शूर्पणखा अविद्या माया का रूप है।
Additional information
Authors | |
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Binding | Paperback |
ISBN | |
Language | Hindi |
Pages | |
Publishing Year | 2019 |
Pulisher |
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