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हिंदी की हिमायत क्यों
हिंदुस्तानी नीति की भाषा हो सकती है, प्रतीति की कदापि नहीं : हिंदुस्तानी भीति की भाषा बन सकती है, प्रीति की कदापि नहीं। कही बड़ी बात जा रही है पर विवेक के आधार और इतिहास के प्रमाण पर ही। भावुकता का यह देश नहीं, यहाँ शास्त्र–चिन्ता की प्रतिष्ठा है और है निदान का बड़ा महत्त्व भी। राष्ट्र में जो वैमनस्य फैल रहा है उसका निदान यदि भली भाँति हो जाता तो आज इतना रक्तपात न होता और कोई लीग किसी जिन की बात भी नहीं सुनती। अचरज की बात तो यह है कि हमारे देश के सयाने कहते हैं कि अँगरेजों के पहले हमारे यहाँ की यह स्थिति नहीं थी और हिंदू–मुसलमान बड़े मेल–जोल से हिलमिल कर रहते थे। उनकी बोली–बानी, रहन–सहन सब कुछ एक हो गया था। ठीकय पर कृपाकर यह भी तो कहें कि साथ–साथ बोलते–चालते, उठते–बैठते, चलते–फिरते, लेते–देते, आते–जाते, मरते–धरते, कूदते–खाते और गुलछर्रे उड़ाते ही थे अथवा कभी कुछ लिखते–पढ़ते और गींजते–गाँजते भी थे। यदि हाँ, तो उसका इतिहास कहाँ है, उसका साहित्य कहाँ है, और किस दिन के लिये हैय आज उसी की शिक्षा अनिवार्य क्यों नहीं बना देते, और क्यों राष्ट्र के अतीत के साथ ऐसा खिलवाड़ कर रहे हो ? और यदि नहीं, तो छोड़ो इन जमातों की बात और देखो कल की होनी। आज की चिंता तभी सार्थक हो सकती है जब कल का कल्याण उसमें निहित हो। नहीं तो मन–बहलाव के लिये जुआ का खेल बहुत बढ़िया है।
Additional information
Authors | |
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Binding | Paperback |
ISBN | |
Language | Hindi |
Pages | |
Publishing Year | 2023 |
Pulisher |
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