Kripa Aur Purushartha

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Kripa Aur Purushartha

Kripa Aur Purushartha

180.00 170.00

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180.00 170.00

Author: Sriramkinkar Ji Maharaj

Availability: 10 in stock

Pages: 111

Year: 2008

Binding: Paperback

ISBN: 0

Language: Hindi

Publisher: Ramayanam Trust

Description

कृपा और पुरुषार्थ

।।श्री राम: शरणं मम।।

कृपा शब्द मेरे लिए केवल शब्द मात्र नहीं है। वह ऐसा महामन्त्र है, जिसने मुझे धन्य बना दिया है और उसे बार-बार दुहराते हुए मुझे पुनरुक्ति का बोध ही नहीं होता है। कृपा के साथ मुझे एक शब्द जोड़ना अत्यन्त प्रिय है, जिसे प्रेममूर्ति श्री भरत ने प्रभु के समक्ष कहा था-

नाथ न मोहि संदेह कछु सपनेहु सोक न मोह।

केवल कृपा तुम्हारिहिं कृपानंद संदोह।।

कृपा की आवश्यकता किसे नहीं है ? किन्तु सभी सिद्धान्तों में उसके साथ कुछ-न-कुछ जोड़ा ही जाता है। ज्ञानी को ज्ञान-दीप प्रज्वलित करने के लिए जो उपकरण चाहिए उसमें सर्वप्रथम श्रद्धा की आवश्यकता है और वह श्रद्धा की गाय प्रभु की कृपा से ही प्राप्त होती है।

सात्त्विक श्रद्धा धेनु सुहाई।

जो हरि कृपा हृदय बस आई।।

पर गाय मिल जाने पर भी उसे सत्कर्म का चारा तो चाहिए ही और यह ज्ञान के साधक को पुरुषार्थ करने के लिए प्रेरित करना है।

कर्म-सिद्धान्त में मनुष्य शरीर की प्राप्ति को भगवत् कृपा के रूप  में ही स्वीकार किया गया है।

कबहुँक कर करुना नर देहि।

देही ईस बिन हेतु सनेही।।

भले ही यह मानव शरीर ईश्वर की कृपा से प्राप्त हुआ हो, किन्तु साधन ही उसका मूल लक्ष्य है।

‘साधन धाम मोक्ष कर द्वारा’ शक्ति सिद्धान्त में कृपा को सर्वश्रेष्ठ स्थान दिया गया है। किन्तु वहाँ भी साधना की आवश्कता का प्रतिपादन तो किया ही गया है और वह भी स्वयं के श्रीमुख से।

भगति कै साधन कहऊँ बखानी।

सुगम पंथ मोहि पावइ प्रानी।।

इसलिए इन तीनों सिद्धान्तों में कृपा और पुरुषार्थ शब्द स्वयं इसी सत्य की ओर इंगित करता है और जब कृपा और पुरुषार्थ पर प्रवचन प्रस्तुत किया जा रहा हो तब ‘केवल कृपा’ शब्द वहाँ अनुपयुक्त सिद्ध हो सकता है। ऐसी स्थिति में मैं श्री भरतजी महाराज के ‘केवल कृपा’ शब्द को क्यों इतना अधिक महत्त्व दे रहा हूँ।

यह बड़ी विचित्र-सी बात होगी कि एक ओर तो मैं कृपा के साथ पुरुषार्थ शब्द को अनिवार्य बता रहा हूँ। तब भला ‘केवल’ शब्द के मेरे इस आग्रह के पीछे एक विशेष कारण है। उसे एक दृष्टान्त के रूप में ही देना चाहूँगा कि मनुष्य के शरीर के साथ जिन-अवस्थाओं का वर्णन किया गया है, उसमें किशोर, युवा, वृद्ध से कुछ-न-कुछ आशा तो की ही जाती है। किन्तु एक अवस्था ऐसी है जहाँ पर उससे कोई आशा नहीं रखी जाती। वह है ‘शिशु-अवस्था’।

अत: यों कह सकते हैं कि माता-पिता की आवश्यकता सभी अवस्थाओं में विद्यमान रहती है, किन्तु बालक के लिए तो ‘केवल’ शब्द का ही प्रयोग किया जा सकता है। उसे तो ‘केवल’ माँ की कृपा ही प्राप्त होती है। वह उस समय की सारी क्रियाओं के लिए माँ पर ही आश्रित है। इस अर्थ में अपने आपको एक ऐसे शिशु के रूप में देखता हूँ जिसके जीवन में केवल प्रभु की कृपा ही सब कुछ है। किन्तु व्यासासन पर बैठकर जो व्याख्या की जाती है, वहाँ पर ‘केवल’ शब्द सार्थक सिद्ध नहीं होगा क्योंकि तब उपदेश की कोई आवश्यकता ही नहीं रह जाएगी। उपदेश तो कुछ करने की प्रेरणा देने के लिए ही दिया जाता है। इसलिए इस पुरुषार्थ और कृपा के सामंजस्य की बात करना ही युक्तियुक्त है। कृपालु प्रभु ने अपनी कृपा से जिस व्यासासन पर मुझे आसीन किया है, उसमें वही अनिवार्य है जो प्रवचनों में कहा गया है।

ग्रन्थ छपने से पहले जो मुझे प्रतीक चिह्न मिला उसमें धनुष बना हुआ था। मैंने उसमें बाण जोड़ने की आवश्यकता समझी, शायद यह धनुष और बाण मेरे लिए ‘कृपा और पुरुषार्थ’ का सबसे श्रेष्ठ प्रतीक है। धनुष कृपा है और बाण पुरुषार्थ। बाण सक्रिय दिखाई देता है। लक्ष्य-भेद भी उसी के द्वारा किया जाता है। इसी में बाण की सार्थकता है। पुरुषार्थ का उद्देश्य भी तो जीवन के लक्ष्य को पूरा करना है और बाण स्वयं अपनी क्षमता से गतिशील नहीं हो सकता उसे तो चलानेवाला योद्धा जिस दिशा में भेजना चाहता है उसी दिशा में प्रेरित कर देता है और पुरुषार्थ के पीछे वह कृपा ही तो है जो व्यक्ति के जीवन में सक्रियता के रूप में दिखाई देती है। इसलिए कृपा के धनुष और पुरुषार्थ के बाण को ही मैंने प्रतीक चिह्न के रूप में चुना।

श्री हनुमानजी की लंका-यात्रा को गोस्वामी तुलसीदासजी ने इसी रूप में देखा। उन्होंने श्री हनुमान जी की तुलना श्री राम के बाण से की।

जिमि अमोघ रघुपति कर बाना।

एहि भाँति चलेउ हनुमाना।।

सब कुछ हनुमानजी ही करते हुए प्रतीत हो रहे हैं। इसीलिए जब प्रभु ने उनसे प्रश्न किया कि तुमने लंका जलाने जैसा कठिन कार्य कैसे सम्पन्न किया। तब श्री हनुमानजी ने प्रभु के प्रताप की महिमा की ओर ही संकेत किया-

नाघि सिंधु हाटकपुर जारा।

निसिचर गन बधि बिपिन उजारा।।

सो सब तव प्रताप रघुराई।

नाथ न कछु मोरि प्रभुताई।।

स्वयं गोस्वामी तुलसीदासजी की विनय-पत्रिका में अनगिनत बार कृपा शब्द का उपयोग किया गया है।

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Paperback

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Language

Hindi

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Publishing Year

2008

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