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Description
सर्कस
सर्कस आज एक खत्म होती हुई कला है। सरकारी संरक्षण और प्रोत्साहन के अभाव, आधुनिक टेक्नॉलॉजी-आधारित मनोरंजन के प्रभुत्व और उसकी अपनी आन्तरिक समस्याओं के चलते वह अपनी पारम्परिक जगह को खोता जा रहा है। लेकिन आज भी वह न सिर्फ एक बड़े दर्शक वर्ग को आकर्षित करता है, बल्कि एक कौतूहल की रचना भी करता है। उस विशाल तम्बू के भीतर जहाँ शो शुरू होते ही जैसे जिन्दगी और खुशी नाचने लगती है, सुख-दुख, आशा-निराशा, यातना और उत्पीड़न का एक भरा-पूरा संसार भी रहता है। खास तौर से भारतीय सर्कस अपने अभावों और भविष्यहीनता के चलते एक बहुस्तरीय यंत्रणा का परकोटा है।
हमारे समय के वरिष्ठ कथाकार संजीव का यह उपन्यास उस दुनिया के भीतर उतरता है; और सर्कस के उन पहलुओं को हमें दिखाता है, जिनकी हम कल्पना भी नहीं कर सकते। वह चाहे वहाँ काम करनेवाले लोगों की पीड़ा हो, या जानवरों की, हमें ऐसे अनुभव से रूबरू कराती है जो दर्शक के रूप में हमारे लिए अलभ्य रहे आए हैं। सर्कस सिर्फ शामियाने के भीतर चलने वाला तमाशा ही नहीं, देश का विराट् रूपक भी है जहाँ अभिनेता अपनी-अपनी आकांक्षाओं, द्वन्द्वों और छद्म में साँस लेते हुए दर्शक का मनोरंजन करते हैं।
Additional information
Authors | |
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Binding | Paperback |
ISBN | |
Pages | |
Publishing Year | 2018 |
Pulisher | |
Language | Hindi |
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