Shamshan Champa

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Shamshan Champa

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150.00 128.00

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150.00 128.00

Author: Shivani

Availability: 10 in stock

Pages: 122

Year: 2021

Binding: Paperback

ISBN: 9788183610728

Language: Hindi

Publisher: Radhakrishna Prakashan

Description

श्मशान चंपा

 

‘चंपा तुझ में तीन गुण, रूप, रंग अरू बास।

अवगुण तुझमें एक है, भ्रमर न आवत पास।।

एक थी चंपा। रूप, रंग और गुणों की मादक कस्तूरी गंध लिए चंपा। लेकिन पिता की मृत्यु, बिगड़ैल छोटी बहन की कलंक-गाथा और स्वयं उसके दुर्भाग्य ने उसे बुरी तरह झकझोर डाला।

बाहर से आत्मतुष्ट, संयमी और आत्मविश्वासी दीखने वाली डॉक्टर चंपा के अभिशप्त जीवन की वेदना की मार्मिक कहानी है। ‘श्मशान चंपा’। एक परम्पराप्रेमी और आज्ञाकारी बेटी जो सबको इलाज और निर्बाध सेवा दे सकती थी, पर अपने अभिशप्त एकाकी जीवन का सन्नाटा भंग नहीं कर पाती है। सुख के शिखर पर पहुँचाकर स्वयं नियति ही निर्ममता ने उसे बार-बार नीचे गिराती अनिश्चय की घाटियों में भटकने को भेजती रहती है।

 

श्मशान चंपा

तश्तरी में धरे पानी में तैर रहे बेले की सुगन्ध दवा की तीव्र सुगन्ध में डूबकर रह गई थी। भगवती की उदास दृष्टि, रिक्त कमरे की दीवारों से सरसराती, फिर अपने पीले हाथों पर उतर आई, इस रक्त-शून्य कंकाल के किस छिद्र में उसके प्राण अटककर रह गए थे ? असाध्य रोग की यन्त्रणा से दुर्वह तो उसकी स्मृतियों की यन्त्रणा थी, अकेली पड़ी रहती तो कभी यही यन्त्रणा असह्य हो उठती थी। कुछ ही देर पहले चंपा उसे कैप्सूल खिलाकर ड्यूटी पर चली गई थी। अस्पताल की बड़ी-सी गाड़ी उसे लेकर गई तो भगवती का दिल डूबने लगा। एक बार जी में आया, चीख कर उसे रोक दे—‘‘आज तू अस्पताल मत जा बेटी’’, तबीयत उसे स्वयं क्षुब्ध कर उठी थी। उसकी तबीयत क्या आज ही ऐसे घबड़ा रही थी ? जब भी चंपा ड्यूटी पर जाने लगती, उसे ही लगता था कि पुत्री के लौटने तक निश्चय ही उसे कुछ हो जाएगा। क्या पता यही उसे अंतिम बार देख रही हो ? इसी से उसे दुःखद संभावना उसे विचलित कर उठती थी। किन्तु छलनामयी मृत्यु तो उसे बिल्ली के क्रूर पंजों में दबी चुहिया की ही भाँति खिला-खिलाकर मार रही थी। आज जब वह उसे दवा खिलाने आई तो भगवती बड़ी देर तक उसकी ओर देखती रही थी।

‘‘क्या देख रही हो ऐसे ममी ?’’ हँसकर उसने पूछा तो भगवती ने यत्न से ही अपनी सिसकी को रोक लिया था। कैसा अपूर्व रूप था इस लड़की का ! न हाथ में चूड़ियाँ, न ललाट पर बिन्दी, बिना किनारे की सफेद लेस लगी साड़ी और दुबली कलाई पर मर्दाना घड़ी, यही तो उसका श्रृंगार था, फिर ही जब यहाँ अपनी पहली नौकरी का कार्यभार सँभालने आई तो स्टेशन पर लेने आए नारायण सेनगुप्त ने हाथ जोड़कर भगवती को ही नई डाक्टरनी समझ सम्बोधित किया था, ‘‘बड़ी कृपा की आपने, इतनी दूर हमारे इस शहर में तो बाहर की कोई डाक्टरनी आने को राज़ी ही नहीं होती थीं। एक दो आईं भी तो टिकी नहीं। पर आपको विश्वास दिलाता हूँ, हम आपको किसी प्रकार का कष्ट नहीं होने देंगे।’’

‘‘डाक्टरनी मैं नहीं हूँ, मेरी पुत्री चंपा आपके अस्पताल का चार्ज लेगी।’’ हँसकर भगवती ने कहा, तो सेनगुप्त उसकी ओर अविश्वास से देखते ही रह गए थे। यह लड़की क्या उनके उस विराट अस्पताल का भार सँभाल पाएगी ? एक-एक दिन में कभी सात-आठ लेबर केसेज़ निबटाने पड़ते थे पिछली डॉक्टरनी को, इससे वहाँ कोई टिकती ही नहीं थी और फिर क्या उस सुन्दरी डॉक्टरनी का मन उसे रूखे शहर में लग सकता था ? किन्तु चंपा को तो ऐसे ही जनशून्य एकान्त की कामना थी। उसे वह अपना छोटा-सा बँगला बेहद प्यारा लगा था। छोटे-से अहाते में धरे क्रोटन के गमले, लॉन में बिछी मखमली दूब और एक-दूसरे के गुँथे खड़े दो ताड़ के वृक्षों की सुदीर्घ छाया ! पास में ही दूसरा बँगला था डॉक्टर मिनती घोष का। वही उसकी सहायिका डॉक्टरनी थी। बड़ी-बड़ी आंखें, बड़े-बड़े जूते और विकसित देहयष्टि, उस रोबदार डॉक्टरनी के सम्मुख चंपा और भी बच्ची लगती थी।

जिस दिन चंपा ने चार्ज लिया, उसी दिन बेचारी लड़की को अस्पताल की विचित्र ड्यूटी ने चूसकर रख दिया था। न खाने का समय, न सोने का। फिर तो उसकी वह ड्यूटी भगवती के नित्य का सिर-दर्द बन गई। कभी वह सुबह दो टोस्ट और काली कॉफी पीकर निकल जाती और आधी रात को लौटती। भगवती टोकती, तो हँसकर उसके उपालम्भ को वह उड़ाकर रख देती, ‘‘क्या करती, ममी, एक के बाद एक, दो सिजेरियन निबटाने पड़े, मिनी भी तो मेरे साथ भूखी-प्यासी असिस्ट कर रही थी। अब तुम्हीं बताओ, मरीज़ छोड़कर हम खाने कैसे आ जातीं ?’’ पता नहीं क्या देखकर लड़की ने इतनी दूर इस रूखी नौकरी पर रीझकर चली आई थी। न ढंग का अस्पताल, न अपनी भाषा समझने वाली बिरादरी। जिधर देखो, उधर ही काले-काले लौहवर्णी संथाल चेहरे। कभी-कभी तो गोरा चेहरा देखने को भगवती तरस जाती थी। चंपा की असिस्टेंट मिनी का आनन्दी स्वभाव भगवती को मुग्ध कर गया था। देखने में एकदम साधारण थी वह, फिर शरीर के बेतुकी गढ़न से उसे और भी साधारण बना दिया था। अपने मांसल जिस्म से नाटे कद की वह डाक्टरनी हर वक्त हाँफती रहती थी। ऊँचे जूड़े की गरिमा उस एलोकेशी के माथे पर शेषनाग के फन–सी ही घेरे रहती है।

आँखें बड़ी होने पर न जाने कैसे फटी-फटी लगती थीं। फड़कते अधर एक पल को भी स्थिर नहीं रहते। अपनी टूटी-फूटी हिन्दी से वह पहले ही दिन भगवती से अपनी आशंकाओं का समाधान करा ले गई थी, ‘ओ माँ लखनऊ से यहाँ क्यों आया, माँ जी ? आपका लेरकी तो एकदम बच्चा है। हम पहिले दिन देखा तो लगा, कहीं देखा है। फिर समझा, देखा है पिक्चर में। बझलेन, एकदम सुचित्रा सेन…’’

और फिर बड़ी देर तक, वह कुर्सी पर हिल-हिलकर हँसती रही थी। कैसा विचित्र आकार था उसके शरीर का ! ‘‘एकदम बेलन-सी लगती है री तेरी असिस्टेंट,’’ भगवती ने चंपा से कहा, तो वह एक क्षण को हँसकर फिर गम्भीर हो गई थी।

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Binding

Paperback

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Language

Hindi

Pages

Publishing Year

2021

Pulisher

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