Standhal

Standhal

स्तान्धाल

जन्म : 23 जनवरी, 1783; ग्रिनोबल, फ़्रांस।

बाल्ज़ाक की चर्चा यथार्थवाद के प्रवर्तक के रूप में की जाती है। लेकिन इतिहास का तथ्य यह है कि स्तान्धाल भी इस श्रेय का समान रूप से हक़दार है। बल्कि यदि कालक्रम की दृष्टि से देखें तो यथार्थवाद का प्रवर्तक स्तान्धाल को ही माना जाना चाहिए, क्योंकि उन्होंने यथार्थवादी लेखन की स्पष्ट दिशा बाल्ज़ाक से कुछ वर्ष पहले ही अपना ली थी। यूरोपीय साहित्येतिहास के गम्भीर अध्येता ऐसा मानते भी हैं, लेकिन आम पाठकों के बीच स्तान्धाल का नाम आज भी अपेक्षतया अल्पज्ञात है।

इसका एक कारण शायद यह भी है कि स्तान्धाल की बहुतेरी अप्रकाशित कृतियाँ उसकी मृत्यु के क़रीब पचास वर्ष बाद प्रकाशित हुईं। उनके जीवनकाल में कम ही आलोचकों ने उनके कृतित्व पर ध्यान दिया। अपनी अनूठी यथार्थवादी शैली और उपन्यासों की संश्लिष्ट, प्रयोगधर्मी मनोवैज्ञानिक बुनावट के चलते सिर्फ़ प्रबुद्ध पाठकों ने ही उन्हें सराहा। बाल्ज़ाक और अपने अन्य प्रमुख समकालीनों की तुलना में स्तान्धाल ने बहुत कम लिखा था और उपन्यास से अधिक उसने संगीत एवं कला-विषयक निबन्ध और यात्रा-वृत्तान्त आदि लिखे थे। शासकीय सेवा में रहते हुए सक्रिय जीवन का अधिकांश हिस्सा उन्होंने फ़्रांस से बाहर, मुख्यतः इटली में, बिताया था। 1821 से 1830 के बीच जब वह पेरिस में थे भी तो सैलों में उनकी ख्याति मुख्यतः एक ‘कन्वर्सेशनलिस्ट’ और ‘पोलेमिसिस्ट’ के रूप में थी जो अपने ग़ैर-परम्परागत विचारों एवं तार्किकता के लिए जाना जाता था। उनके सर्वोत्कृष्ट उपन्यास ‘सुर्ख़ और स्याह’ और ‘पारमा का चार्टरहाउस’ (The Charterhouse of Parma) जब छपे तो वह फ़्रांस से बाहर थे। इन सबके बावजूद, स्तान्धाल के जीवनकाल में कुछ प्रसिद्ध साहित्यिक हस्तियों ने उनकी प्रतिभा का उच्च आकलन किया जिनमें गोएठे, बाल्ज़ाक और मेरिमी प्रमुख थे। उल्लेखनीय है कि 1830 के दशक में ही पुश्किन और तोल्स्तोय भी स्तान्धाल के लेखन से परिचित हो चुके थे और उन्होंने उनकी मुक्त कंठ से प्रशंसा की थी।

निधन : 23 मार्च, 1842; पेरिस

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