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Description
आज के अतीत
कथाकार के नाते भीष्म साहनी सहज और सुगम कहानीपन के हिमायती रहे हैं, रचना में भी और विचारों में भी। उनकी कहानियाँ साफ ढंग से अपनी बात पाठक तक पहुँचाती हैं, शिल्प और प्रयोग के नाम पर उसे उलझाती नहीं। यही सहजता और ‘आम आदमीपन’ उनकी इस आत्मकथा में भी दृष्टिगोचर होता है। यहाँ भी वे विद्वानों से नहीं, अपने उन पाठकों से ज्यादा सम्बोधित हैं जो अभी तक उनके कथा-पाठ में, उनके उपन्यासों और नाटकों में अपना चेहरा देखते रहे हैं। जिस आसानी से वे इन पृष्ठों पर ‘तमस’ और ‘हानूश’ जैसे क्लासिक्स की रचना-प्रक्रिया के बारे में बता देते हैं, वह हमें चकित करती है। उससे लगता है जैसे भीष्म जी पहले हमारे मित्र हैं, उसके बाद लेखक। आत्मकथाओं से आमतौर पर आत्मस्वीकृतियों की अपेक्षा की जाती है; इस पुस्तक में वे अंश विशेष तौर पर पठनीय हैं जहाँ भीष्म जी अकुंठ भाव से अपने भीतर बसे ‘नायक पूजा भाव’ को स्वीकारते हैं, बचपन में बड़े भाई (बलराज साहनी) के प्रभावस्वरूप जो भाव उनके मन में बना, वह बाद तक उनके साथ रहा।
हर कहीं वे ‘हीरो’ को तलाशने लगते। भीष्म जी के मास्को प्रवास का ब्यौरा उनके अलावा साम्यवादी सोवियत संघ को जानने के लिए भी पढ़ा जाना चाहिए। इससे हम साम्यवाद के प्रति रूसी नागरिकों की आरम्भिक निष्ठा के बारे में तो जानते ही हैं, वे कुछ सूत्र भी हमें दिखाई देते हैं जो धीरे-धीरे सोवियत समाज में प्रकट हुए और अन्तत: उसके पतन का कारण बने। भीष्मजी हिन्दी के उन शीर्षस्थ लेखकों में हैं जिनकी नई रचनाओं की उत्सुकता पाठकों में बराबर बनी रहती है; तिस पर यदि रचना आत्मकथा हो तो यह पाठक के लिए अपने एक वरिष्ठ लेखक से जैसे कुछ दो बार पाना हो जाता है। यह कृति ऐसी ही है।
Additional information
Authors | |
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Binding | Paperback |
ISBN | |
Pages | |
Publishing Year | 2023 |
Pulisher | |
Language | Hindi |
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