Aavaran

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Aavaran

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120.00 110.00

In stock

120.00 110.00

Author: Gurudutt

Availability: 4 in stock

Pages: 220

Year: 1997

Binding: Hardbound

ISBN: 0

Language: Hindi

Publisher: Hindi Sahitya Sadan

Description

आवरण

आधार-भूमि

जैसे वस्त्र शरीर का आवरण है अथवा शरीर आत्मा का आवरण है, इसी प्रकार विचार तथा भावनाओं का आवरण भी होता है। वस्त्र की रक्षा करने में कोई भी व्यक्ति शरीर को हानि नहीं पहुँचाएगा, न ही शरीर के लिए कोई आत्मा का हनन करना चाहेगा। इसी प्रकार विचारों में आवरण गौण और भीतर का संरक्षित भाव मुख्य माना जाना चाहिए।

कठिनाई वहाँ पड़ती है, जहाँ कोई आत्मा का अस्तित्व माने ही नहीं। ऐसे व्यक्ति के लिए शरीर ही सब कुछ होता है। अथवा कभी कोई शरीर को हेय और आवरण को मुख्य मानने लगे। इस अवस्था में आवरण उपयुक्त न होने पर मृत्यु तक हो सकती है।

ऐसी ही परिस्थिति विचारों, भावनाओं इत्यादि में भी हो जाती है। सिद्धान्तों को गौण मान, रीति-रिवाज, जो सिद्धान्तों के आवरण मात्र होते हैं, को मुख्य मानने वाले भी संसार में विद्यमान् हैं और उसके लिए लड़ मरते हैं।

मनुष्य तो प्रायः सब एक समान होते हैं, परन्तु भिन्न-भिन्न आवरणों में भिन्न-भिन्न प्रतीत होते हैं। एक गौरवर्णीय हिन्दुस्तानी यूरोपियन पहिरावे में युरोपियन प्रतीत होने लगता है, इसी प्रकाश केश और दाढ़ी रखने से कोई सिख प्रतीत होने लगता है और सुन्नत इत्यादि चिह्न बनाने से मुसलमान।

कभी रीति-रिवाज की इतनी महिमा हो जाती है कि इसके आवरण में सिद्धांतात्मक विचार और भाव लुप्तप्राय हो जाते हैं। उदाहरण के रूप में देवता का स्वरूप हनुमान्-सरीखा होना चाहिए अथवा गणेश जैसा ? राधा-कृष्ण की मूर्ति उपास्य हो अथवा शिव की ? ये विवाद हैं आवरण के। इन विवादों में भगवान् की पूजा तथा उपासना गौण हो जाती है और मूर्ति की रूपरेखा मुख्य बन जाती है।

एक व्यक्ति सन्ध्योपासना पूर्वाभिमुख बैठकर करता है, कोई दूसरा नमाज़ पश्चिमाभिमुख हो करता है। ये पूर्व-पश्चिम सर्वथा गौण हैं। इस पर कभी-कभी विचारशील व्यक्ति भी इस बाहरी बात को मुख्य मानकर परस्पर झगड़ पड़ते हैं।

आर्य समाज जैसी संस्था भी, जो अपने को बु्द्धिशील व्यक्तियों का समूह मानती है, हवन करते समय धोती पहननी चाहिए, पर बहुत बल देती है।

इसी प्रकार राजनीति और आर्थिक विधि-विधान में भी मनुष्य तत्त्व को छोड़ रीति-रिवाज अथवा विधि-विधान पर बल देने लगते हैं। राज्य-कार्य में देशवासियों की रक्षा और जनता की सुख-सुविधा ही तथ्य की बात है। इस तथ्य की प्राप्ति के अनेक उपाय हो सकते हैं, परंतु जब कोई राज्य अथवा राजनीतिक दल यह कहे कि उससे प्रतिपादित उपाय ही ठीक है और अन्य उपायों पर विचार भी नहीं करना, तो यही कहा जा सकता है कि तथ्य को छोड़ वे आवरण पर मुग्ध हो रहे हैं।

आजकल के मानव की स्थिति देख किसी भी पन्थ, समुदाय और विचारधारा का उदाहरण लिया जा सकता है, परन्तु उस पन्थ, समुदाय इत्यादि के विरोध का आशय नहीं है। यह कल्पना की गई है, जो आवरण को छोड़ तथ्य को पहचानते हैं। अतएव यहाँ किसी पन्थ, समुदाय अथवा विचारधारा का विरोध करना उद्देश्य नहीं परन्तु उस प्रवृत्ति का, जिससे लोग तथ्य को भूल बाहरी आवरण पर लड़ने-झगड़ने लगते हैं, दिग्दर्शन-मात्र ही मुख्य उद्देश्य है।

मानव सब समान हैं और उनका उद्देश्य एक है, परन्तु पथ न्यारे-न्यारे हैं। पंथों का विवाद उद्देश्यों में भिन्नता के कारण ही होना चाहिए। उद्देश्य एक होने पर भिन्न-भिन्न पन्थ रीति-रिवाजों से झगड़े का कारण नहीं होने चाहिएँ।

प्रान्तीयता अथवा जातीयता एक जन-समूह की उन्नति के लक्ष्य से निर्मित हुए हैं, न कि मनुष्य-मनुष्य में घृणा उत्पन्न करने के लिए। ये सीमाएँ मानव-हित में बनी हैं, मानव की हत्या करने के लिए नहीं। जैसे कपड़े शरीर की रक्षा के लिए होते हैं, वैसे ही प्रान्तीयता अथवा जातीयता मानवता की रक्षा के लिए है।

इसी प्रकार किसी समाज में, सबका सुखपूर्वक रहना उद्देश्य है और समाज में व्यक्तिगत स्वातन्त्रता तथा इसकी सीमा निर्धारित करना पन्थ है। सामाजवादी ढ़ाचा हो अथवा व्यक्तिगत उद्योग अथवा यत्न हो, ये उद्देश्य प्राप्ति में साधन हैं। साधन आवश्यक होते हुए भी जनता की सुविधा की तुलना में गौण हैं।

सरमायादारी से ही जनता का कल्याण हो सकता है अथवा समाजवादी ढाँचे से ही ऐसा होगा, ऐसा मानना यह मानने के तुल्य है कि धोती पहनकर ही यज्ञ पर बैठने से यज्ञ सफल होगा अथवा दाढ़ी मूँछ रखने से ही कोई पन्थ चल सकेगा।

तथ्य अथवा आडम्बर, शरीर अथवा आवरण, उद्देश्य अथवा विधि-विधान ‘आवरण’ पुस्तक का विषय है। इस विषय को एक कथानक में गूँथने का यत्न किया गया है।

पुस्तक उपन्यास है। पात्रादि सब काल्पनिक हैं। किसी व्यक्ति अथवा समुदाय के विरोध अथवा मान-अपमान से इसका सम्बन्ध नहीं। उक्त विषय की विवेचना ही इसका उद्देश्य है।

शेष पाठकों के अपने पढ़ने और समझने की बात है।

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Hardbound

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Language

Hindi

Pages

Publishing Year

1997

Pulisher

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