Aawan

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Author: Chitra Mudgal

Availability: 5 in stock

Pages: 544

Year: 2018

Binding: Paperback

ISBN: 9788171383726

Language: Hindi

Publisher: Samayik Prakashan

Description

आवां

संगठन अजय शक्ति है। संगठन हस्तक्षेप है। संगठन प्रतिवाद है। संगठन परिवर्तन है। क्रांति है। किंतु यदि वही संगठन शक्ति सत्ताकांक्षियों की लोलुपताओं के समीकरणों की कठपुतली बन जाएं तो दोष उस शक्ति की अंधनिष्ठा का है या सवारी कर रहे उन दुरुपयोगी हाथों का जो संगठन शक्ति सपनों के बाजार में बरगलाए-भरमाएहे ?  अपने वोटों की रोटी सेंक रये खतरनाक कीट बालियों को नहीं कुतर रहे, फसल अंकुआने से पूर्व जमीन में चंपे बीजों को ही खोखला किए दे रहे हैं। पसीने की बूदों में अपना खून उड़ेल रहे भोले-भाले श्रमिकों को, हितैषी की आड़ में छिपे इस छदम कीटों से चेतने-चेताने और सर्वप्रथम उन्हीं से संघर्ष करने की जरूरत नहीं ?

क्या हुआ उन अनवरत मुठभेड़ों में की लाल तारीखों में अभावग्रस्त, दलित, शोषित श्रमिकों की उपासी आतों की चीखती मरोड़ों की पीड़ा खदक रही थी ? हाशिए पर किए जा सकते हैं वे प्रश्न जिन्होंने कभी परचम लहराया था कि वह समाज की कुरूपतम विसंगति आर्थिक वैषम्य को खदेड़, समता के नए प्रतिमान कायम करेंगे ? प्रतिवाद में तनी आकाश भेदती मुट्ठियों से वर्गहीन समाज रचे-गढ़ेंगे, जहाँ मनुष्य मनुष्य होगा, पूंजीपति या निर्धन नहीं ! पकाएंगे अपने समय के आवां को अपने हाड़-मांस के अभीष्ट ईधन से ताकि आवां नष्ट न होने पाए !

विरासत भेड़िए की शक्ल क्यों पहन बैठी ? ट्रेड यूनियन जो कभी व्यवस्था से लड़ने के लिए बनी थी, आजादी के पचास वर्षोपरांत आज क्या वर्तमान विकृत, भ्रष्ट स्वरूप धारण करके स्वयं एक समांतर व्यवस्था नहीं बन गई ?

बीसवीं सदी के अंतिम प्रहर में एक मजदूर की बेटी के मोहभंग, पलायन और वापसी के माध्यम उपभोक्तावादी वर्तमान समाज को कई स्तरों पर अनुसंधानित करता, निर्ममता से उधेड़ता, तहें खोलता, चित्रा मुदगल का सुविचारित उपन्यास आवां’ अपनी तरल, गहरी संवेदनात्मक पकड़ और भेदी पड़ताल के आत्मलोचन के कटघरे में ले, जिस विवेक की मांग करता है-वह चुनौती झेलता क्या आज की अनिवार्यता नहीं

तुमने जब अपनी आँखें दान कीं

बहुत लड़ी मैं तुमसे।

तुमने जब किडनी दान करने का फार्म भरा,

फार्म छीन मैंने चिथड़े-चिथड़े कर दिया।

तुमने कहा

तुम जो कुछ लिखती हो, कहती हो,-सिर्फ औरों के लिए है ?

अपने छद्म से तुम कब मुक्त होगी, माँ ?

मैं चिढ़ गई थी !

अब तुम्हें यकीन दिला सकती हूं

तुमसे पिछड़ जरूर गई मैं, अर्पणा !

परास्त नहीं हुई……

लिखने और कहने के बीच

‘पहल’-सी उठ खड़ी हुई हूं।

 

क्यों

ट्रेड यूनियन में मैं बहुत थोड़े समय के लिए जुड़ी रही। लेकिन श्रमिक परिवारों से मेरा लंबा नाता रहा। हमारे घर के अहाते के बाहर चारों ओर मजदूर बस्तियां फैली हुईं थीं। घर तो प्रतापनगर में था ही, हनुमान टेकरी जोचिंम कंपाउंड, पठान कालोनी, मंगतराम पेट्रोल पंप…..भंडुप स्टेशन और बाद में बने कंजूर मार्ग स्टेशन तक फैली बस्तियां ! जिनकी कच्ची मिट्टी की भित्तियों में कुछ सांधें स्वयं गढ़ी थीं- अपने माथे पर खुदी इबारतों के अर्थ बदलने के लिए। 1964 की चर्चा कर रही हूं मैं मुंबई पूर्व के इस, सघन औद्योगिक इलाके की बस्तियों में कोई कल्पना नहीं कर सकता था कि वहां तब बिजली के लट्टू नहीं, लालटेनें और ढिबरियां जला करती थीं। पाखाने के लिए ठेठ गाँव भांति मजदूर पुरुष, स्त्रियां और बच्चे लोटा लेकर तड़के ‘नेवल डाकयार्ड’ कालोनी के पिछले हिस्से में फैले सघन जंगलों में जाया करते। तीन-तीन चालियों के बीच में एक नल। टोटियों में भी जब पानी आता, चालियों के बरामदों तक हंडे-बाल्टियों की लंबी कतारें लग जातीं। कभी दिनों पानी न आता। सूखी टोटियों के सूखे गले सूं-सूं करते सूखी उम्मीद बंधाते रहते। अम्मा बंगले के पिछवाड़े वाले गेट को खुलवा देतीं कि वे पीने का पानी आकर वहां से ले जाएं-हंडे से ज्यादा नहीं वह भी जब ठाकुर साहब घर में अनुपस्थित हों।

जिस शाम अहाते को लांघ, सुलगती सिगड़ियों के धुएं के बादल बंगले के दरवाजे-खिड़कियों पर दस्तक न देते, मन अनमना उठता-किस कंपनी में तालेबंदी हुई है !

मीरा ताई से मेरी सबसे पहली मुलाकात तभी हुई थी, जब वे एक शाम डॉ. दत्ता सामंत के साथ ठाकुर साहब से मिलने घर आईं। ‘इंडियन लिंक चेन’ में हुई तालेबंदी के संदर्भ में दत्ता अंकल ने ठाकुर साहब से कई मुद्दों पर बातचीत की थी। प्रतापनगर से लगी हुई एम.ई.एस. की सरकारी कालोनी के अधिकारी एम. ई. एस. कालोनी की सड़कों का मजदूरों द्वारा आवागमन के उपयोग के सख्त खिलाफ थे-प्रतिबंध स्वरूप उन्होंने पत्थर की दीवार बनाकर रास्ता बंद करने का निर्णय लिया है। मजदूर इस प्रतिबंध से घोर कष्ट में पड़ जाएंगे। अपनी फैक्टरियों में आने-जाने के लिए उन्हें मंगतराम पेट्रोल पंप के रास्ते घूमकर आना-जाना होगा जो लगभग मील से ऊपर का चक्कर होगा। दूसरे, पत्थर की लंबी दीवार आठ फुट ऊंची बन जाने से मजदूरों को जंगल पाखाने आदि के लिए जाने की समस्या हो जाएगी। ठाकुर साहब इस प्रतिबंध के विरुद्ध कोर्ट में जाएं। प्रतापनगर उनका है। उनके रहवासियों के कष्ट की ओर उन्हें ध्यान देने की जरूरत है। वे कोर्ट से स्टे ले लेंगे तो यह मामला तत्काल अटक जाएगा। दूसरी मदद उन्होंने यह माँगी कि उनके जितने भी मजदूर किरायेदार ‘इंडियन लिंक चेन’ के हैं, तालेबंदी के दौरान उनकी खोलियों का किराया माफ कर दिया जाए। जो श्रमिक एक जून अपने घर चूल्हा नहीं सुलगा पा रहे, वे खोलियों का  किराया कहां से देंगे ? तीसरा मुद्दा-नगरपालिका जब हाउस टैक्स, प्रापर्टी टैक्स ले रही है आपसे तो इस मजदूर बस्ती की बुनियादी जरूरतों की ओर ध्यान दें। मुहिम वे चलाएंगे। बस, वह उनके साथ खड़े रहें। ठाकुर साहब उनसे सहमत हुए।

यह थी मीरा ताई और डॉ. दत्ता सामंत से मेरी पहली मुलाकात। होली से तीन रोज पहले-3 मार्च 1964 को।

यही समय था जब मैं मीरा ताई की संस्था ‘जागरण’ से जुड़ी, जो घरों में चौका-बासन वाली मजदूर पत्नियों की संस्था थी- उनके बुनियादी हक की लड़ाई लड़ने वाली। जब चाहे तब उन्हें निकाला नहीं जा सकता। उनकी हारी-बीमारी का खाड़ा नहीं खाटा जा सकता। उनके संग बदसलूकी नहीं की जा सकती, न दैहिक शोषण। महीने में तीन छुट्टी, साल में पूरे एक महीने की आदि…..आदि….

मीरा ताई का आग्रह था-कालेज से आकर मैं खाली समय में क्या करती हूं ? उस समय मैं सोमैया कालेज, घाटकोपर (तब विद्या विहार स्टेशन बना-बना था) में सेकंड ईयर आर्ट्स की छात्रा थी। मेरी छोटी बहन केशा साइंस पढ़ती थी। दोपहर में घर लौट आती उसे पूरा दिन लग जाता। मीरा ताई के आग्रह पर मैंने मंगतराम पेट्रोल पंप की ‘शिवा’ चाली की एक खोली में बने उनके ‘जागरण’ के कार्यालय में बैठना शुरू किया, ठाकुर साहब के विरोध के बावजूद। ‘जागरण’ का आठ-बाई-आठ का, मात्र शतरंजी बिछा छोटा-सा दफ्तर श्रमिक महिलाओं से भरा रहता था। जयहिंद मिल’ सड़क के उस पार थी। डॉ. दत्ता सामंत भी कभी-कभार जागरण के उस छोटे से कार्यालय में आते। मुझे देखकर खूब प्रसन्न होते तब और प्रसन्न हुए जब उन्होंने पाया कि मैं ट्रेड यूनियन के कामों में ज्यादा रुचि दर्शाने लगी हूँ और अकसर मीरा ताई के साथ सेंट जेवियर्स स्कूल के सामने धरने पर बैठे ‘इंडियन लिंक चेन’ के हड़ताली मजदूरों के साथ बैठने लगी हूँ।

एक शाम मजदूरों ने देखा कि ‘इंडियन लिंक चेन’ के जनरल मैनेजर मि. तिवारी अपनी गाड़ी से कंपनी  के गेट से निकल रहे हैं। गेट पर तैनात पुलिस कुछ असावधान है। क्रुद्ध श्रमिकों में से कुछ ने सड़क पारकर उनकी गाड़ी पर पथराव किया। कुछ ने लपकर गाडी़ का दरवाजा खोल तिवारी जी को कार से बाहर घसीट लिया।, यह हादसा ‘इंडियन लिंक चेन’ से लगी सीबा कंपनी (अब सिबाका इंडियन) के अहाते की दीवार के पास घटा। मीरा ताई के पीछे मैं भी मजदूरों को उद्दंडता से रोकने दौड़ी। मगर अपनी बदहाली से पगलाए मजदूरों ने तब मिस्टर तिवारी को जमीन पर पटक उन्हें लात-घूंसों से इस कदर रौंदा कि जब तक पुलिस आई वे अचेत हो गए-या उन्होंने अचेत होने का नाटक किया। बहरहाल, उन पर कातिलाना हमले के जुर्म में हम सभी को कुत्ते-बिल्ली की तरह खींच-धकियाकर वैन में भर, भांडुप पुलिस स्टेशन ले जाकर बंद कर दिया गया।

लॉकअप में बंद मजदूर तब भी बेखौफ प्रबंधन के खिलाफ समवेत स्वर में नारे लगा रहे थे। उनका नेतृत्व मीरा ताई कर रही थीं। बगल वाले लॉकअप से मीरा ताई के संग मैं भी मुट्ठियां उछाल अपने को नारे लगाते हुए पा रही थी।

भूखे मजदूरों के आक्रोश से मेरा पहला परिचय हुआ।

लेकिन जिस दुर्घटना ने मेरे छात्र जीवन की दिशा बदल ही दी, वह थी ट्रेड यूनियनों की आपसी प्रतिद्वंद्विता, अंतर्विरोध और उसमें अपराधी गिरोहों की ठेकेदारी।

….एक दोपहर भांडुप स्टेशन रोड से भरे बाजार के बीच चार गुंडों ने मिलकर मीरा ताई की देह से उनके कपड़े फाड़े, उन्हें बेइज्जत ही नहीं किया, पीठ पर छुरा भोंक उन्हें अपनी अवमानना से सदैव-सदैव के लिए मुक्त कर दिया-हफ्ते-भर मैं बिस्तर से नहीं उठ पाई। बस एक ही द्वंद्व रह-रहकर मेरी कनपटियों में सूजे की नोक-सा उतरने लगता। उन्हें मीरा ताई को मारना था मार देते। भरी सड़क पर उनके कपड़े तार-तारकर उनके स्त्रीत्व को अपमानित करने की क्या जरूरत थी !

दत्ता अंकल ने बहुत चाहा कि मैं ट्रेड यूनियन में अपनी रुचि को खारिज न करूं पर मुझे लगा, मुझे जो लड़ाई लड़नी है, वह ‘जागरण’ दफ्तर में बैठकर  लड़नी है। और मैं वहीं बैठकर लड़ूंगी।

स्त्री की क्षमता को उसकी देह से ऊपर उठाकर स्वीकार न करने वाले रुग्ण समाज को बोध कराना आखिर किन कंधों का दायित्व होगा ?

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Paperback

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Language

Hindi

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Publishing Year

2018

Pulisher

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