- Description
- Additional information
- Reviews (0)
Description
अज्ञेय काव्य स्तबक
प्राक्कथन
साहित्य अकादमी के आग्रह पर हम लोगों ने अज्ञेय की रचनाओं का यह स्तबक तैयार किया है। इसमें उनकी अप्रकाशित कविताओं में से भी कुछ ली गयी हैं, जिससे उनकी समूची काव्ययात्रा का पूरा परिदृश्य उपस्थित किया जा सके। भूमिका के रूप में हम दोनों ने अलग-अलग पक्ष लिये, ‘जीवनयात्रा’ का अंश विद्यानिवास मिश्र ने लिखा, ‘अज्ञेय का कविकर्म’ रमेशचन्द्र शाह ने। कविताओं के लिए श्रीमती इला कोइराला (वत्सलनिधि की प्रबन्ध न्यासी) से अनुमति मिली है, उसके लिये हम उनके आभारी हैं।
इस स्तबक में 134 कविताएं संकलित हैं। प्रत्येक कविता के अंत में रचनाकाल दिया हुआ है। रचना-प्रकाशन का क्रम भी परिशिष्ट में दिया गया है। हमें यह स्तबक तैयार करते समय अज्ञेय की काव्ययात्रा के साथ होने का जो सुख मिला, उसके लिए साहित्य अकादेमी के हम हृदय से आभारी हैं। हमें विश्वास है कि यह स्तबक अज्ञेय काव्य के सहृदय पाठकों को रमाने में कृतकार्य होगा।
विद्यानिवास मिश्र
रमेशचन्द्र शाह
अज्ञेय की जीवन यात्रा
अज्ञेय की कविताओं का संकलन समग्रतर बनाने के लिये मैं पिछले पन्द्रह वर्षों से सोच रहा हूँ। प्रारम्भ में दी हुई जीवनी को फिर से लिखना चाहता हूँ-केवल कुछ जोड़-घटाकर नहीं, आमूल ढाँचे को बदलकर लिखना चाहता था, वह कई कारणों से नहीं हो सका। सबसे बड़ा कारण यह रहा कि मैं कृति अज्ञेय को पूरी तरह समझना चाहता था और वह समझना आसान नहीं था। डूबता ही रहा, तिरकर किसी किनारे लग नहीं सका। मैं उसके स्नेह के प्रकाश के घेरे में ऐसा घिरता गया कि उनके कृतित्व का उसके व्यक्तित्व का संयोजन न कर सका। आज वह स्नेह देनेवाला व्यक्ति नहीं है, उसके स्नेह की अहर्निश जीती-जागती स्मृति है और यह स्मृति ही लिखने में बाधक है। उन्नीस सौ सत्तासी में, सत्ताईस मार्च को यह भीतरी जानकारी लूँ और तब उनकी जीवनी लिखूँ। पहले भी उनके साथ बर्कले में दिन में सात-सात घण्टे बात करके (क्योंकि उस समय विश्वविद्यालय बंद था, और कोई दूसरा कार्य न भाई के पास था, न मेरे) मैंने मौन गम्भीरता की राख कुरेद-कुरेद कर वह आग खोदी थी, जो अज्ञेय की वैश्वानरी खोज थी। मैंने उस आग के आलोक में फिर से उनकी कविताएँ पढ़ी और ‘आज के लोकप्रिय हिन्दी कवि : अज्ञेय’ का पहला संस्करण बर्कले में ही तैयार किया। पहला संस्करण, जहाँ तक मुझे याद है, अप्रैल उन्नीस सौ तिरसठ में छपा था। उसके बाद अनेक संस्करण हुए थोड़े बहुत परिवर्तन होते रहे पर 1986 से मैं इस संग्रह को सर्वथा नया रूप देना चाहता रहा हूँ और कहीं-न-कहीं अटक जाता रहा हूँ। कहीं आत्मीयता जितनी बढ़ती है, उतनी ही दूरी भी बढ़ती है, यह असमंजस ही कारण हो या अज्ञेय के विचारक पक्ष के रखने पर उनकी कविताओं में आयी हुई सादगी एकदम अनपहचानी लगी, यह कारण हो-संकल्पित कार्य नहीं हो नहीं सका। वह संकल्प 86-87 में फिर जगा और स्वर्गीय भाई से जो वादा किया था कि जून 87 में भीमताल के पास वाले, नये खरीदे मकान में पन्द्रह दिन साथ बितायेंगे और यहाँ किताब पूरी करेंगे, यह वादा कराने वाला स्वयं धोखा दे गया (यद्यपि कहा यह था ‘‘देखिये इस बार ‘डिच’ न कीजियेगा’’-हम लोगों के बीच कई एक यात्राओं में साथ-साथ रहने की योजनाएँ आँख-मिचौनी का खेल-खेल चुकी थीं) इसका आधार भी बहुत ज़बर्दस्त था और तीन वर्ष बीत गये, मैं अपना संकल्प पूरा न कर सका, क्योंकि इस अवधि में इस तथ्य से समझौता नहीं कर सका कि वे नहीं रहे। वे छोड़कर चले जा सकते है। आवेग अभी गया नहीं, पर अब लगा कि संगह की भूमिका को नये सिरे से लिखूँ ही और उन्हीं के साथ बैठकर छाँटी गयी कविताओं का नये सिरे से अनुक्रम लगाऊँ और उनकी जीवनी पूरी करूँ-निर्णायक बन कर नहीं, उनके क्रांतियुगोत्तर साहित्यिक जीवन का सहयात्री बनकर। मैं एक विचित्र किस्म का सहयात्री था-शिष्य या भक्त बनकर उनके पीछे नहीं लगा; हमजोली, मित्र, साथी के रूप में कोई छूट नहीं ली, तटस्थ जीवनी लेखक की तरह प्रतिक्षण का लेखा-जोखा नहीं लेता रहा। उनसे दूर, पर उनके स्नेह के कारण उनके नज़दीक, उनकी सहज कृपा के कारण उनके बहुत समीप रहा, उनसे अधिक कुछ पूछे बिना अनेक उत्तर पाता रहा। उनके सान्निध्य में एक जादू था जो, समुद्दीपित होता रहा। इस समुद्दीपन (रेडिएशन) का अनुभव जो उनके पास गया है, उसने अवश्य किया है। कभी-कभी विश्वास नहीं होता कि उनके स्नेह कि पात्रता मुझसे है कि नहीं और वह अविश्वास उनके एकाक्षर-सम्बोधन, आशीष, अभिवादन जो भी समझें ‘जय’ में विलुप्त हो जाता था। मिलने पर ‘जय’ और विदा होते हुए ‘जय’। प्रत्येक स्थिति में प्रतीक्षा, उत्सुक प्रतीक्षा का भाव मन से छूट नहीं सकता था और यह न छूटना ही प्रेरित करता है कि एक-दूसरे से गुँथे हुए अनन्त स्मृतियों के सूत्रों को सुलझा नहीं पाऊँ, तब भी उन्हें एक सूत के रूप में बट तो दूँ ही।
अज्ञेय के जीवन का अंतिम सप्ताह अद्भुत विषाद, अद्भुत वैराग्य और अद्भुत उछाह से भरा रहा। भोपाल जाने के पूर्व यह इच्छा व्यक्त की कि अब मैं अपने को खींचकर कुछ अपने भीतर प्रवेश करना चाहता हूँ। भोपाल में कविता के उत्सव के केन्द्र में रहकर कविता के लिये उत्सुकता जगाते रहे और इसी बीच हलका संकेत भी देते रहे कि यह सब दीये की लौ की अंतिम भभक है। दिल्ली आकर एक रात पंडित जसराज के संगीत में डूबे। दूसरे दिन उन्हें घर बुलाया और कलाकार के साथ बात करते-करते कुछ अस्तित्व जैसा अनुभव किया और आराम करने चले गये। अंतिम दिन तक, बल्कि अंतिम रात तक सजग कला साहित्य संस्कृति के प्रतिभू बने रहकर अपनी साँसें उन्होंने बटोरीं और भारतीय साहित्य के सम्पूर्ण शरीर हमारी आँखों से 4 अप्रैल 1987 को विदा ले गये। 75 वर्ष उसके पहले साल पूरे हो चुके थे और उसके अनेक उत्सव यहाँ-वहाँ बड़ी सुरुचि से मनाये जा चुके थे। कुछ विचार था मानव मूल्यों को केन्द्र में रखकर, एक स्तरीय निबन्ध संग्रह उनके सम्मान में छपाया जाये और उनकी जीवन-साधना को इसके द्वारा रूपायित किया जाये, क्योंकि वह जो कुछ थे, मानव मूल्यों को पूरी तरह अर्पित व्यक्ति थे। धीर, उदात्त और दुर्धर्ष योद्धा थे, निर्भीक पर दुःसाहसी नहीं, सत्यान्वेषी पर अकरुण नहीं, विचारक पर शब्दजाली नहीं, दिग्विजयी पर अंहकारी नहीं, गहरे आस्तिक, पर विश्वास के डिंडिभवादक नहीं, समाहित पर आत्मलीन नहीं, स्रष्टा से अधिक पाठक-और पाठक से अधिक आस्वादन और सम्प्रेषण के मर्मज्ञ-पर सम्प्रेषण के लिये उतावले नहीं, अतिशय संवेदनशील पर संयत कवि विचारक अज्ञेय के जीवन की भूमिका की इतनी भूमिका के बाद उनकी जीवन-यात्रा के विवरण पर आता हूँ।
Additional information
Authors | |
---|---|
Binding | Paperback |
ISBN | |
Language | Hindi |
Pages | |
Publishing Year | 2019 |
Pulisher |
Reviews
There are no reviews yet.