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Description
अकाल सन्ध्या
ग्रामीण जीवन के कुशल कथा-शिल्पी रामधारी सिंह दिवाकर का यह उपन्यास ‘अकाल सन्ध्या’ बदलाव की प्रक्रिया से गुजर रहे गाँवों का प्रामाणिक दस्तावेज है। ध्वस्त होती सामन्ती ग्रामीण व्यवस्था के बरअक्स जो नयी समाज-व्यवस्था उभर रही है, उसके शुभ-अशुभ पक्षों को कथाकार ने पूरी तन्मयता से उकेरा है। स्थापित मान-मूल्य टूट रहे हैं, लेकिन इनकी जगह जो नयी समाज व्यवस्था सामने आ रही है उसमें सामाजिक मूल्यों की वापसी के चिन्ताजनक संकेत परेशान करने वाले हैं। जनतान्त्रिक चेतना से दीप्त और बदलाव के लिए बेचैन गाँव के इस नये मानस के अन्तर्विरोधों को कथाकार ने गहरी मानवीय संवेदनाओं से चित्रित किया है। उपन्यास में दलित-यथार्थ का वह अनुद्घाटित पक्ष भी खुलकर समाने आया है जिससे हम अक्सर आखें चुराते रहे हैं। गाँव के सामाजिक, राजनीतिक और सांस्कृतिक जीवन से लेखक की गहरी आत्मीयता, सरोकार और संलग्नता का प्रमाण है यह उपन्यास। इसकी एक बड़ी विशेषता है इसका कथा-प्रवाह और कुछ ‘टिपिकल’ चरित्रों की सृष्टि। डालडा सुराजी, महाबीर मियां, बीपी अकेला, खड़कू, झा आदि चरित्र स्मृति पर अमिट निशान छोड़ जाते हैं। गाँव की प्रवंचित आबादियाँ गलत-सही रास्तों से कभी भूलती-भटकती और कभी सधे कदमों से चलती हुई आज जिस मुकाम तक अपने अस्तित्व की लड़ाइयाँ को ले आयी हैं, वे लड़ाइयाँ अभी जारी हैं। श्री दिवाकर गाँव पर लिखने वाले अन्य लेखकों से इस अर्थ में भिन्न और विशिष्ट हैं कि उन्होंने अतीत राग से मुक्त होकर आज के बनते हुए गाँव की कथा वहाँ की बोली-बानी से सिक्त भाषा में लिखी है। समकाल का संवाहक और नये युग का संकेतनक ‘अकाल सन्ध्या’- गतिशील ग्रामीण यथार्थ को कार्यान्वित करने का एक मानक प्रयास। सुपरिचित कथाकार रामधारीसिंह दिवाकर को ग्रामीण पृष्ठभूमि पर कथा कहने का अच्छा माद्दा है। ‘अकाल सन्ध्या’ के अनेक पात्रों में से एक महत्वपूर्ण पात्र है ‘माई’, जो अपने गाँव और समाज का पूरा व्यक्तित्व समेटे हुए हैं। माई का बेटा नन्दू पढ़-लिखकर अमेरिका चला जाता है और कुछ दिनों बाद वह अपने पूरे परिवार को भी ले जाता है। अकेली रह जाती है तो सिर्फ माई। यह है आज के पढ़े-लिखे भारतीय समाज का चित्र।…. प्रतिभाएँ पलायन कर रही हैं और भारतीय राजनीति कम पढ़े-लिखे लोगों के हाथ में सौंपी जा रही है। हमारे प्रगतिशील समाज की पंगु मानसिकता..कितनी खतरनाक ! लेखक ने उपन्यास के जरिए बिहार के ही नहीं, भूरी भारतीय राजनीति के चित्र का उघाड़ा है, जिससे आप यह अन्दाजा लगा सकते हैं कि राजनीति करने की मुहिम में आज हमारे गाँव किस कदर डूबे हुए हैं।…पश्चिमी की विस्तारवाद की नीतियों से लेकर भारतीय राजनीति और उसमें साँस लेते समाज की सशक्त अभिव्यक्ति।
Additional information
Authors | |
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Binding | Paperback |
Language | Hindi |
ISBN | |
Pages | |
Publishing Year | 2024 |
Pulisher |
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