Apane Apane Pinjre – 1-2
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अपने-अपने पिंजरे – 1-2
दलित साहित्य ने बहुत दूर तक साहित्य के अभिजात या संभ्रान्त चरित्र को खण्डित किया और ऐसी तल्ख सच्चाईयों को सम्मुख रखा जिसे इस देश का साहित्यिक मानस स्वीकार करने को तैयार नहीं है। इस शती के सातवें-आठवें दशक में मराठी साहित्य में उभरे दलित स्वर ने इस देश के साहित्य-मानस को बुरी तरह झकझोरा था और व्यथित भी किया था। उसमें न तो वह अभिजात्य था जिसकी हमारे मानस को आदत थी और न वह आडम्बर था जिसे हम बड़े स्नेह से यत्न पूर्वक सहेजते चले आ रहे थे। मराठी में दलित लेखकों द्वारा लिखे गये आत्म-वृत्त इस दृष्टि से बहुचर्चित हैं और महत्वपूर्ण भी। मराठी आलोचक इन रचनाओं को आत्मकथा या आत्मकथाएँ अवकाश ग्रहण के उपरान्त बुढ़ापे में लिखी जाती हैं। वे स्वकेन्द्रित होती हैं। उनमें वर्णित प्रसंग कब के हो चुके होने से ‘भूतकालीन’ होते हैं, ‘वर्तमान’ से उनका कोई सरोकार नहीं होता। आत्मवृत्त युवा लेखकों द्वारा लिखे गये हैं, जिन्होंने अपने वृत्तों के माध्यम से यह जानने का प्रयास किया है कि आखिर हम कौन हैं, जिस रूप में आज हम समाज में पहचाने जाते हैं उसका कारण क्या है। ऐसे लेखक पीछे मुड़कर इसलिए देखते हैं कि सामने का रास्ता साफ और स्पष्ट दिखाई दे।
मेरी बात
यादों के जंगल में खोजता हूँ तो बचपन से जवान होने तक के सफर में अनगिनत घटनाओं/दुर्घटनाओं के चित्र आँखों के सामने तैर उठने से मेरे भीतर दर्द उभर आता है। उस दर्द की कसक या तो मैं जानता हूँ या मेरी जात के लोग। उन निर्मम यादों को भूलूँ भी तो भला कैसे…।
मुझसे किसी ने पूछा, ‘‘आप अपने परिवार तथा रिश्तेदारों के अंतरंग संबंधों तथा बातों को बिना किसी हिचकिचाहट के उजागर करते हो। कैसा लगता है ?’’
‘‘न अच्छा और न बुरा।’’ मेरा जवाब होता है।
‘‘फिर।’’ सामनेवाला पुनः सवाल कर देता है।
‘‘बस मन को अजीब-सी तृप्ति होती है। मेरे भीतर बरसों से जो बादल उमड़ रहे होते हैं, वे बरस उठते हैं।’’
‘‘इतना ही।’’ सवाल करनेवाला मुझसे जैसे और कुछ चाहता है।
‘‘बस इतना ही। बादल नहीं बरसेंगे तो विस्फोट हो सकता है। आत्मकथा लिखने से मेरे भीतर का विस्फोट बाहर आ रहा है। दलित अस्मिता के सवाल उभर रहे हैं। वे अपनी जड़ों की तलाश कर रहे हैं।’’
मेरी जिंदगी में आधा सूरज ही क्यों आया ? आधा सूरज यानी आधा उजास। अँधेरे-उजाले की कशमकश में जैसा मैं, वैसे ही मेरी जात के अनुत्तरित सवाल। मैं भी असंतुष्ट, मेरी जात के लोग भी असंतुष्ट। कौन संतुष्ट करेगा आखिर। इस मर्म को बहुत बाद में जाना था। व्यक्ति हो या समाज, उसे अपने हक, अधिकार स्वयं ही लेने होते हैं। बैसाखियों पर जीवन नहीं चलता। चलेगा भी तो कितने दिन, कितने बरस, कितने दशक। जिंदगी तो बहुत बड़ी होती है।
– मोहनदास नैमिशराय
Additional information
Authors | |
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Binding | Hardbound |
ISBN | |
Language | Hindi |
Pages | |
Publishing Year | 2018 |
Pulisher |
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