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Description
अपने पराये
भूमिका
मानव-समाज का निर्माण तो मनुष्य-मनुष्य में सम्बन्ध बनने से ही हुआ है। समाज का बीज स्त्री-पुरुष के सम्बन्ध में है। इसी सम्बन्ध का विस्तार परिवार और फिर जाति, बिरादरी, राष्ट्र और अंत में मानव समाज है।
परन्तु देखा जाता है कि मानव जहाँ समाज बनाकर रहना चाहते हैं वहाँ वे परस्पर लड़ने-झगड़ने अर्थात् शत्रुता करने तथा युद्ध करने में भी अपना हित मानते हैं।
इस विषय में कुछ दार्शनिक कहते हैं कि मनुष्य-समाज में विकास हो रहा है, इस कारण यह काल व्यतीत होने के साथ-साथ अपने समाज के घेरे को विस्तार दे रहा है। सृष्टि के आरम्भ में तो मनुष्य का समाज पुरुष और स्त्री की परिधि से भी संकुचित था, अर्थात् दोनों में लैंगिक सम्बन्ध होता था और पशुओं की भाँति इस कृत्य के उपरान्त दोनों एक-दूसरे को भूल जाते थे। अनुभव ने मनुष्य को विवश किया कि उसे पुरुष-स्त्री में सम्बन्ध स्थायी बनाना चाहिए और फिर परिवार अर्थात् इस सम्बन्ध से सर्जित बच्चों को साथ रखना चाहिए। यह परिवार बन गया। इसी प्रकार अनुभव से मनुष्य को परिवार से कबीले, कबीलों से जाति और जातियों से राष्ट्र की कल्पना करने में विवश होना पड़ा और आज ईसा की बीसवीं शताब्दी में अन्तर्राष्ट्रीय समाज की कल्पना और उस कल्पना के कार्यान्वित करने का कार्य आरम्भ हो गया।
समाज का यह इतिहास प्रत्यक्ष में तो सत्य ही प्रतीत होता है, वास्तव में यह ऐसा है नहीं। इसका प्रमाण यह है कि मनुष्य परिवार में रहता हुआ भी परस्पर लड़ता-झगड़ता देखा जाता है। भाई-भाई में शत्रुओं से अधिक तीव्र शत्रुता भी यत्र-तत्र देखी जाती है। जाति, बिरादरी अथवा एक राष्ट्र में भी परस्पर घोर संघर्ष चल रहे हैं। यही व्यवस्था अन्तर्राष्ट्रीय क्षेत्र में भी देखी जाती है। यदि पहले भाई ही भाई की हत्या करते देखे जाते थे तो आज भी वैसी घटनाएँ हो रही हैं। कदाचित् पहले से कम नहीं। पति-पत्नियों में वैमनस्य के लक्षण भी कम नहीं हुए हैं। पत्नियों की हत्याएँ तथा पत्नियों की आत्महत्याएँ पहले से कम नहीं हुई। कुछ संख्या में अधिक ही दृष्टिगोचर हो रही हैं। देश-देश में युद्धों और संघर्षों की मात्राओं में कमी दिखाई नहीं देती। यदि पिछली शताब्दी के युद्धों में कुछ सहस्रों की हत्याएँ होती थीं तो आज युद्ध छिड़ जाने पर लाखों की हत्याएँ होती देखी जा रही हैं। ऐसा अनुमान है कि भविष्य में कोई बड़ा युद्ध हुआ तो करोड़ों मरेंगे।
हमारा विचार है कि इस विषय में विकास की बात सत्य नहीं। मनुष्य तो मनुष्य ही है। वह आदिसृष्टि से आज तक मानसिक विकास में वहीं-का-वहीं ही खड़ा है जहां वह था। जहाँ तक छोटे से बड़े सामाजिक घेरे दिखाई देते हैं वे आर्थिक, राजनैतिक और तकनीकी सामर्थ्य में परिवर्तन होने, मनुष्य बनाने में विवश हो रहे हैं। इस विवशता के नीचे मन की अवस्था ज्यों-की-त्यों ही है। परिणाम यह है कि हत्याएँ, आत्महत्याएँ, षड्यन्त्र, परस्पर छल-कपट और फिर युद्ध पहले से अधिक संख्या में और तीव्रता से हो रहे हैं।
कारण यह है कि मनुष्य एक बुद्धिशील जीव है और बुद्धियाँ सब में समान नहीं है। इस कारण मतभेद और असहनशीलता सर्वथा नि:शेष नहीं हो सकते।
यह बुद्धि का ही आविष्कार है कि संसार में अपने और पराये की कल्पना बनी है। मेल-मिलाप, मित्रता, पारिवारिक सम्बन्ध तथा देश में राष्ट्रीय सम्बन्ध और अन्तर्राष्ट्रीय क्षेत्र में देशों के परस्पर सम्बन्ध अपने और पराये के विचार से ही बन रहे हैं।
पिछले दो विश्वयुद्धों में अमेरिका इंगलैण्ड के साथ सम्मिलित रहा था। द्वितीय विश्वयुद्ध में हिटलर और स्टालिन सहयोगी बने थे। यहाँ भी सहयोग चल नहीं सका। इंगलैण्ड और रूस में भी मित्रता बनी थी, परन्तु युद्ध की अस्वाभाविक परिस्थिति के समाप्त होते ही दोनों में सिर-फुटौअल होने लगी। यही बात अमेरिका और रूस की हो गई है।
अमेरिका ने चीन के कम्युनिस्टों की अनजाने अथवा जान-बूझकर सहायता की और इसका कटु परिणाम हुआ। इन सबमें कारण यह है कि अपने और पराये में पहचान करने में भूल हुई थी।
यही बात सब क्षेत्रों मे समान रूप में होती देखी जाती है। सम्बन्धों में बीज-रूप में पुरुष-स्त्री का सम्बन्ध है। इसमें भी अपने और पराये की पहचान ही सम्बन्ध के स्थायी, सुखद और सहिष्णुतापूर्ण होने में कारण होती है।
अत: अपने और पराये की विवेचना इस पुस्तक का विषय है। शेष तो उपन्यास ही है और पात्र, स्थान तथा घटनाएँ काल्पनिक है। साथ ही किसी के भी मान-अपमान का प्रयोजन नहीं है।
Additional information
Authors | |
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Binding | Hardbound |
ISBN | |
Language | Hindi |
Pages | |
Publishing Year | 1998 |
Pulisher |
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