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आशा, कालिन्दी और रम्भा
आशा-कालिंदी और रम्भा नामक उपन्यासों की त्रयी क्रमशः सामंतवादी, पूंजीवादी और गांधीवादी व्यवस्था में स्त्री की स्थिति पर एक टिप्पणी है।
आशा उपन्यास की नायिका स्वयं अपनी कहानी सुनाती है। सेठ कालिंदी प्रसाद आशा अर्थात जानकी बाई को अपनी रखैल बनाना चाहता है। निर्धन दुकानदार बाप की बेटी होने के कारण ही नवाब के हरम में पहुंचा दी जाती है और बाद में वहां से मुक्त होने पर जानकी बाई के रूप में नाचने-गाने का धंधा करने लगती है। आशा नवाब और सेठ कालिंदी प्रसाद दोनों के लिए ही स्त्री भोग की सामग्री है। अगली कड़ी में सेठ कालिंदी अपनी कहानी कहता है। उसका सबसे बड़ा कष्ट यह है कि रूपये के लालच में उसका पिता उसका विवाह बड़े घर की फूहड लड़की से कर देता है। पैसा उसके पास कितना ही हो, श्वसुर की सहायता से दूसरे विश्वयुद्ध में वह और भी कमाई करता है। लेकिन उसका पारिवारिक जीवन नरक बना हुआ है। अंग्रेजों और कांग्रेस दोनों के बीच संतुलन साधकर वह व्यापर में खूब उन्नति करता है। असफल दांपत्य जीवन के कारण वह एक वेश्या से सम्बन्ध बनाता है और उसी से उत्पन्न बेटी का नाम वह रम्भा रखता है। रम्भा, इसकी नियति भी बहुत भिन्न नहीं है। अलग कोठी में पाली-पोसी जाने के बावजूद उसे सोलह साल की उम्र में चालीस साल के सेठ सोनेलाल की रखैल बनने को बाध्य होना पड़ता है, क्योंकि उसके पिता सेठ कालिंदी चरण मेंयाह साहस नहीं है कि समाज में यह कह सके कि वह उसकी बेटी है। सेठ सोनेलाल की रखैल बन जाने के बाद भी रम्भा अपने विकास के लिए संघर्ष करती है। पढ़कर एम्.ए. करने के दौरान आनंद के संपर्क में आती है। सोनेलाल का गर्भ धारण करके भी वह उससे घृणा करती है। आनंद के संपर्क में आकर वह जनसेवा की ओर प्रवृत होती है और एक स्कूल चलाने लगती है।
Additional information
Authors | |
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Binding | Paperback |
ISBN | |
Pages | |
Publishing Year | 2014 |
Pulisher | |
Language | Hindi |
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