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अतिथि
आज तक उनके किस पूर्वज मुख्यमंत्री ने अपनी जाति को प्रश्रय नहीं दिया। कौन से मुख्य सचिव ने अपनी बिरादरी को महत्वपूर्ण पद नहीं सौंपे। कभी-कभी माधव बाबू का चित्त खिन्न हो उठता। क्या इसी स्वतंत्रता के स्वप्न उन्होंने देखे थे भ्रष्टाचार और जातिवाद से महमह महकती राजनीति में मुख्यमंत्री माधव बाबू अपने बिगड़ैल पुत्र कार्तिक को साधने के लिए पारम्परिक भारतीय ब्रह्मास्त्र का प्रयोग करते हैं, उसकी गाँठ अपने निहित शिक्षक मित्र श्यामाचरण की बेटी जया से बाँधकर। लेकिन सरल, बुद्धिमती और स्वाभिमानी जया पति और मंत्रिपत्नी तथा उनके नशेड़ी बेटी की समवेत बेहूदगियों से क्षुब्ध आई.ए.एस.परीक्षा की तैयारी के दौरान एक बड़े उद्योगपति के पुत्र शेखर से उनकी भेंट के बाद उसके जीवन में नया मोड़ आने ही वाला था, कि नियति उसके अतीत के पन्ने फरफरा कर फिर उसके आगे खोल देती है।
शहर की कुटिल राजनीति, सम्पन्न राजनैतिक घरानों के दुस्सह पारिवारिक दुष्चक्र और पारम्परिक ग्रामीण समाज की कहीं सरल और कहीं काकदृष्टि युक्त टिप्पणियों के ताने-बाने से बुना यह उपन्यास अन्त तक पाठकों की जिज्ञासा का तार टूटने नहीं देता।
अतिथि
‘‘अम्मा’’ जया का तमतमाया चेहरा देखकर, माया सहसा सहम गई थी। शांत-सौम्य पुत्री का ऐसा उग्र रूप वह पहली बार देख रही थी।
‘‘मुझे कांता ने बताया, तुम लोग मेरा रिश्ता लेकर उसके घर गिड़गिड़ाने गई थीं। तुम जानती हो, वे लोग कितने ओछे हैं, कांता ने आज सबके सामने ही मुझे अपमानित किया।’’
माया सहम कर चुप हो गई। निश्चय ही बाप की यह मुँहलगी लड़की उनके आते ही उनसे भी कह देगी।
‘‘मेरी जया सचमुच जया है।’’ श्यामाचरण कहते थे।
‘‘सिंहस्कंधाधिरूढ़ा त्रिभुवनमखिलं तेजसा पूरयन्तीं’’ सदा सिंह के कंधे पर चढ़ी मेरी बेटी अपने तेज से तीनों लोकों को परिपूर्ण करती रहेगी। तुम क्यों इसके विवाह की चिंता करती हो। देख लेना, लोग इसे माँगकर सर-माथे पर बिठाएँगे।’’
‘‘मैंने कह दिया है अम्मा। मुझे शादी नहीं करनी है और न तुम मेरे रिश्ते की बात लेकर आज से इधर-उधर जाओगी।’’
निश्चय ही कांता ने कुछ ऐसी-वैसी बात कह दी होगी। सामान्य-सी बात से उत्तेजित होने वाली लड़की नहीं थी जया। करती भी क्या, जया के पिता को तो दिन पर दिन सयानी हो रही पुत्री की चिंता ही नहीं थी। इसी वर्ष उसकी पढ़ाई भी पूरी हो जाएगी। फिर एक बात और भी थी। अपनी ही रिश्तेदारी में दो-तीन लड़कियाँ विजातीय लड़कों से प्रेमविवाह कर चुकी थीं। उस पर जया का रूप ऐसा दिव्य न होता तो उसे चिंता नहीं थी।
कांता उसके साथ पढ़ती थी। ऊँचा जाना-पहचाना खानदान था। उन्हीं का-सा मध्यमवर्गीय परिवार भी था। माया की यह दृढ़ धारणा थी कि विवाह संबंध अपने ही तबके में होना चाहिए। फिर अनिल था भी सुदर्शन-विनम्र लड़का। अगले साल इंजीनियर बन जाएगा। आज तक उस खानदान में हाईस्कूल से आगे कोई नहीं पढ़ पाया था। सबने दुकान के बही-खाते ही सम्हाले थे। इसी से अनिल की माँ का अहं अवश्य कभी-कभी फुफकार उठता है।
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Authors | |
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Binding | Paperback |
ISBN | |
Language | Hindi |
Pages | |
Publishing Year | 2009 |
Pulisher |
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