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Description
बाँस का टुकड़ा
युद्ध को उत्तर आधुनिक संस्कृति पर्याप्त मान्यता दे रही है। इसलिए युद्ध विरोधी दृष्टि यानी मनुष्यधर्मी दृष्टि मामूली सिद्ध हो रही है। संस्कृति के इस विघटनात्मक पक्ष को हमारा ‘पठित समाज’ विश्लेषण का विषय मानता है और ‘ज्ञान-समाज’ अनदेखा करता है। जिस पर गम्भीर बहस होनी चाहिए वह अंगहीन होता जा रहा है। युद्धोत्सुकता इस कारण से सदैव बढ़ती जा रही है। दरअसल इसमें मनुष्य का अप्रमुख हो जाना मुख्य नहीं है बल्कि इसमें आदिम बर्बर समाज की जन्तु सहज नैतिकता बल प्राप्त करती रही है। मनुष्य सापेक्ष सहजता, जन्तु सापेक्ष नैतिकता के पैर तले चरमरा रही है। युद्ध विहीन समाज की परिकल्पना आज इसलिए असम्भव है कि वह अधिकार के साथ ऐसी जुड़ गयी है कि उन्हें अलग नहीं किया जा सकता। अधिकार का मोह असांस्कृति माहौल का सृजन करता है और वह युद्ध को भी सृजित करता है। युद्ध एक संयोग नहीं बल्कि वह सुनियोजित तंत्र है।
‘बाँस का टुकड़ा’ एक कथा काव्य है इसमें महाभारत की कुरूक्षेत्र-युद्ध-कथा को उत्तर आधुनिक सामाजिक के संदर्भ में देखने का प्रयास किया गया है।
Additional information
Authors | |
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Binding | Hardbound |
ISBN | |
Language | Hindi |
Pages | |
Publishing Year | 2004 |
Pulisher |
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