Bhagwan Bharose

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Bhagwan Bharose

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300.00 255.00

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Author: Gurudutt

Availability: 4 in stock

Pages: 188

Year: 2010

Binding: Hardbound

ISBN: 9788188388417

Language: Hindi

Publisher: Hindi Sahitya Sadan

Description

भगवान भरोसे

प्रथम परिच्छेद

1

भगवान भरोसे रहने में भी विशेष प्रकार का आनन्द रहता है। इस अवस्था में आशा पूर्ण न होने पर असंतोष और दु:ख नहीं होता। भाग्य को दोष देकर मनुष्य चित्त को शान्ति दे लेता है। प्रयत्न का फल मिलने पर मुख से ईश्वर का धन्यवाद निकल जाता है और अभिमान करने के लिए स्थान नहीं रह पाता।

परमात्मा को अपनी सफलता-असफलता से प्रथक् रखने में तो सुख और दु:ख दोनों की अनुभूति होती है। सुख की अवस्था में मनुष्य को स्वयं में आत्मविश्वास और अपनी बुद्धि तथा प्रयास पर गर्व होता है। आत्मविश्वास और गर्व से उजड्डता तथा अभिमान एक ही पग आगे हैं और विरले ही इस पग को उठाने से रुक सकते हैं। असफलता के समय दु:ख में तो निराशा और उत्साहहीनता उत्पन्न होने लगती है। यह विनाश का किनारा ही है।

बी.ए., द्वितीय श्रेणी में, उत्तीर्ण कर निरंजनदेव नौकरी करने के लिए दिल्ली को चल पड़ा। उसके दूर का संबंधी लाला नारायणदास भारत सरकार के केंद्रीय कार्यालय में सुपरिण्टेण्डेंट था। एक बार नारायणदास लाहौर आकर उसके पिता के घर पर ठहरा था। उस समय उसने अपनी कारगुजारियाँ सुनाई थीं। निरंजनदेव ने उसकी बातों को सुना था और अपने मन में भी उसी के कार्यालय में नौकरी करने का विचार बना बैठा था। इस विचार में उसने उस दिन नारायणदास से पूछा था, ‘‘आपके कार्यालय में नौकरी मिलती किस प्रकार है ?’’

‘‘कोई बात कठिन नहीं हैं। परीक्षाफल निकलने पर वहां आ जाना और, जिस योग्य होगे, वैसा काम मिल जाएगा। वहाँ तो चपरासी से लेकर सचिव तक के स्थान रिक्त होते रहते हैं। थोड़ा साहस, थोड़ी चतुराई और थोड़ा बात करने का ढंग आना चाहिए, फिर तो उन्नति का मार्ग स्वयमेव बनता चला जाता है।’’

‘‘देखो निरंजनदेव ! मैं दसवीं पास करके वहाँ गया था और दस वर्ष में सुपरिंटेण्डेंट बन गया हूँ। मैं यत्न कर रहा हूँ कि अंडर सेक्रेटरी बन जाऊँ। यदि इस वर्ष नहीं तो अगले वर्ष बन जाऊँगा।’’

‘‘आप पर तो भगवान की कृपा प्रतीत होती है।’’

‘‘भगवान-वगवान कुछ नहीं। कम-से-कम मैंने तो उसे कभी देखा नहीं। मैं सैल्फ-मेड व्यक्ति हूँ। मैंने कभी किसी पर भरोसा नहीं किया। जिसके अस्तित्व को मैं मानता नहीं ऐसे परमात्मा पर भरोसा करने की मैं मूर्खता नहीं कर सकता।’’

यद्यपि निरंजनदेव के घर के संस्कारों तथा नारायणदास के विचारों में कोई समानता नहीं थी, तथापि वह नौकरी का लोभ छोड़ नहीं सका। परीक्षाफल निकलने पर वह दिल्ली हैवलौग स्क्वेयर में नारायणदास के क्वार्टर पर पहुँचा।

नारायणदास दफ्तर जाने के लिए तैयार खड़ा था। निरंजनदेव को अपने क्वार्टर के सामने तांगे पर से उतरते देख वह विस्मित-सा खड़ा रह गया।

‘‘आओ निरंजनदेव ! अपने आने की सूचना तो देते !’’

नारायणदास ने उलाहना-सा जताते हुए कहा।

‘‘इसकी आवश्यकता नहीं समझी।’’

‘‘और मैं घर पर न मिलता, तो ?’’

‘‘तो कहीं धर्मशाला या होटल में ठहरकर आपकी प्रतीक्षा कर लेता। मैं तो अपने सब काम परमात्मा के भरोसे ही करता हूँ। मुझे विश्वास था कि आप अवश्य मिल जाएँगे।’’

‘‘यदि तुम एक दिन का विलम्ब करके आते तो मैं कभी नहीं मिलता। मैं कल ही लम्बे टूर पर जा रहा हूँ।’’

‘‘तब तो मेरा परमात्मा पर भरोसा करना सार्थक हो गया। मेरी अन्तरात्मा ने मुझे प्रेरणा दी थी कि मैं कल ही लाहौर से चल दूँ। सो चला आया और आप मिल गये।’’

‘‘इस वर्ष मैंने बी.ए. पास कर लिया है और अब नौकरी प्राप्त करने में आपसे सहायता लेने के लिए आया हूँ।’’

‘‘मेरे विचार से तो इसके लिए भी परमात्मा को ही बुलाना पड़ेगा।’’ नारायणदास ने व्यंग्य के भाव में मुस्कराते हुए कह दिया।

‘‘परमात्मा ने तो आपके घर का मार्ग दिखा दिया है।’’

‘‘वह मेरा क्या लगता है ?’’

‘‘यह तो बताया नहीं। परन्तु उन्होंने मुझे आपके पास भेजा है, इसमें भी संदेह नहीं है।’’ कहता हुआ निरंजनदेव हँस पड़ा।

‘‘अच्छी बात है, तुम यहाँ ठहरो। मुझे दफ्तर जाने के लिए देर हो रही है। शाम को लौटने पर बात करेंगे।’’

लाला नारायणदास को परमात्मा के नाम से चिढ़ थी और साथ ही उसके भक्तों से भी उसे चिढ़ होने लगी थी। इस पर भी सांसारिक जीव होने के नाते वह अपना व्यवहार इस प्रकार का बनाये रहता था कि जिससे लोक-संग्रह में उसे प्रमाद न आने पाये।

लोक-संग्रह और लोक-कल्याण में तो अन्तर है ही। लाला नारायणदास का ध्यान लोक-संग्रह की ओर होता था। इस कार्य में सहसा कोई लोक-कल्याण का कार्य हो जाए तो दूसरी बात थी। परन्तु लोक-कल्याण उसके लिए कभी साध्य नहीं रहा।

उसको संदेह था कि निरंजन देव का कार्य करने से उसके लोक-संग्रह में वृद्धि होगी। दूसरे उसने अपने मन में विचार किया कि यदि यह कहता है कि परमात्मा मेरा सहायक है और वह सर्वशक्तिमान है तो फिर वह क्यों इसके लिए चिन्ता करे। इस कारण ताँगे में चढ़ते ही उसके मस्तिष्क से निरंजनदेव की बात निकल गई।

उसको निरंजनदेव की स्मृति तभी हुई, जब वह सायंकाल अपने घर वापस आया। अगले दिन सरकारी काम से उसे बाहर टूर पर जाना था। इस कारण उसे निरंजनदेव की समस्या पर विचार करने की आवश्यकता अनुभव हुई। जब वह दफ्तर से आया तो उस समय निरंजन उसके क्वार्टर के बाहर लॉन में एक कुर्सी पर बैठा हुआ कोई पुस्तक पढ़ रहा था। उसे देख नारायणदास पूछने लगा, ‘‘क्या पढ़ा जा रहा है ?’’

‘‘गांधीजी की आत्मकथा है।’’

नाक चढ़ाते हुए नारायणदास बोला, ‘‘अच्छा पढ़ो, मैं कपड़े बदलकर आता हूँ।’’

वास्तव में वह इसके विषय में अपनी पत्नी से बातचीत करना चाहता था। नारायणदास की पत्नी श्यामा यद्यपि निरंजदेव से परिचित नहीं थी, इस पर भी उसने उसके पिता लाला अर्जुनदेव का नाम सुना हुआ था। निरंजनदेव की माँ से उसका अधिक परिचय था। दोनों गुजराँवाला के एक ही मुहल्ले की लड़कियाँ थीं। विवाह के बाद वे परस्पर मिली तो नहीं थीं, परन्तु निरंजनदेव की माँ मोहिनी ने नारायणदास को पहचान लिया था। जब वह लाहौर में अर्जुनदेव के मकान पर ठहरा था, तो मोहिनी ने उसको देखा, पहचाना और बोली, ‘‘मैं आपको जानती हूँ। लाला वैशखीमल के घर आपका विवाह हुआ है न ? श्यामा मेरी सहेली थी। हम एक साथ खेलती थीं।’’

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Binding

Hardbound

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Language

Hindi

Pages

Publishing Year

2010

Pulisher

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