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Description
भारतवर्ष का संक्षिप्त इतिहास
प्रथम उपन्यास ‘स्वाधीनता के पथ पर’ से ही ख्याति की सीढ़ियों पर जो चढ़ने लगे कि फिर रुके नहीं। विज्ञान की पृष्ठभूमि पर वेद, उपनिषद् दर्शन इत्यादि शास्त्रों का अध्ययन आरम्भ किया तो उनको ज्ञान का अथाह सागर देख उसी में रम गये। वेद, उपनिषद् तथा दर्शन शास्त्रों की विवेचना एवं अध्ययन अत्यन्त सरल भाषा में प्रस्तुत कराना गुरुदत्त की ही विशेषता है।
उपन्यासों में भी शास्त्रों का निचोड़ तो मिलता ही है, रोचकता के विषय में इतना कहना ही पर्याप्त है कि कि उनका कोई भी उपन्यास पढ़ना आरम्भ करने पर समाप्त किये बिना छोड़ा नहीं जा सकता।
सम्पादकीय निवेदन
मनीषि स्व० श्री गुरुदत्त ने इस ग्रन्थ की रचना लगभग सन् 1979-80 में की। इसकी पाण्डुलिपि को पढ़ने से तथा उनके जीवनकाल में उनसे परस्पर वार्तालाप करने से यह आभास मिलता था कि वे भारतीय स्रोतों के आधार पर भारत वर्ष का प्रामाणिक इतिहास लिखना चाहते थे। पाश्चात्य इतिहास-लेखकों की पक्षपातपूर्ण एवं संकुचित दृष्टि से लिखे गए इतिहास की सदा उन्होंने भर्त्सना की। वे बार-बार यही कहा करते थे कि ‘‘भारतवर्ष का प्रामाणिक इतिहास लिखा जाना चाहिए।’’
अन्यान्य ग्रंन्थों की रचना करते हुए उन्होंने इतिहास पर भी लेखनी चलानी आरम्भ की और मनु आरम्भ कर राम जन्म तक का ही वे यह प्रामाणिक इतिहास लिख पाए थे कि काल के कराल हाथों ने उन्हें हमसे छीन लिया।
प्रस्तुत पाण्डुलिपि के शीर्ष में उन्होंने ‘भारतवर्ष का संक्षिप्त इतिहास’ लिखा है। इससे तथा पांडुलिपि के बीच-बीच में अनेक स्थानों पर रामोपरान्त के राज्यों और राजाओं के उल्लेख के समय ‘‘इस विषय पर हम यथास्थान विस्तार से लिखेंगे’’, इस संकेत से भी यह बात स्पष्ट हो जाती है कि उनकी इच्छा पूर्ण इतिहास लिखने की थी। काल ने भारत की भावी पीढ़ी को उनके इस उपहार से वंचित कर दिया। कदाचित् यही नियति को स्वीकार होगा।
आर्यावर्त्त के इस संक्षिप्त इतिहास में उन्होंने सृष्टि के आरम्भ की अवस्था का कुछ उल्लेख किया है और फिर अन्तिम जलप्लावन के समय मत्स्य की सहायता से बचे मनु और सप्तर्षियों से उन्होंने इस इतिहास को आरम्भ किया है। उनकी, तथा हमारी भी यही मान्यता है कि सृष्टि का आदिकालीन और तदुपरान्त सतयुग कालीन इतिहास कहीं किसी भी रूप में उपलब्ध नहीं है। न भग्नावशेषों के रूप में और न साहित्य के रूप में। अनेक जलप्लावनों में वह विनष्ट हो गया है। वैवस्वत मन्वन्तर के उपरान्त का जो साहित्य बच पाया है, उसके आधार पर ही ग्रन्थकारों और शास्त्रकारों ने इतिहास की रचना की है। उसी का आश्रय हमारे विद्वान लेखक ने भी लिया है।
भारतवर्ष के भावी प्रामाणिक इतिहास लेखकों के लिए स्व० श्री गुरुदत्त जी की यह धरोहर प्रेरणा का स्रोत बन सकती है। इसके आधार पर यदि कोई इतिहास एवं लेखक भारतवर्ष का प्रामाणिक इतिहास लिखना चाहे तो उसे यह जानने में सुविधा होगी कि आपने इस सुकार्य के लिए उसको किस-किस ग्रन्थ अथवा शास्त्र का आश्रय लेना चाहिए। आज तक के संकुचित दृष्टिकोण से लिखे गए इतिहास के प्रत्याख्यान की प्रक्रिया भी मनीषि लेखक ने अपने इस ग्रन्थ से स्पष्ट कर दी है। यह भी भावी लेखकों के लिए सहायक सिद्ध होगा।
निष्कर्षतः यही कहा जा सकता है कि ‘‘यह जितना भी और जो कुछ भी है, बड़ा ही रुचिकर और प्रेरणास्प्रद है।’’ इतिहासज्ञ, इतिहासकार, इतिहास के अध्यापक और अध्येता इससे निश्चित ही लाभान्वित होंगे।
इस पाण्डुलिपी को संशोधित करने की क्षमता मुझमें नहीं है, यह मैं भली भाँति जानता हूँ। तदपि मूल लेखक के अभाव में जो कुछ भी मैं इसमें संशोधन कर पाया हूँ, वह उसके सान्निध्य में बैठकर अर्जित इतिहास-ज्ञान के आधार पर ही सम्भव हो पाया है। अतः यदि कहीं कोई त्रुटि रह गई हो तो उसे मेरा दोष अथवा त्रुटि माना जाय, लेखक का नहीं।
Additional information
Authors | |
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Binding | Hardbound |
ISBN | |
Language | Hindi |
Pages | |
Publishing Year | 2006 |
Pulisher |
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