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बोलती दीवारें
बोलती दीवारें सब रिश्तों में प्रेम का रिश्ता एक ऐसा रिश्ता है जिसकी चर्चा ‘कामायनी’ भी करती है और ‘कामसूत्र’ भी, ‘मेघदूत’ भी करता है ‘मानस’ भी, ‘गीता’ भी करती है ‘गोदान’ भी। अर्थात अपने-अपने तरीके से कभी-न-कभी, कहीं-न-कहीं सब इसकी व्याख्या करते आये हैं और करते रहेंगे। मैंने इसको समकालीन समय में देखने की कोशिश की है। हमारा प्रेमभाव के प्रति आयु के साथ दृष्टिकोण बदलता रहता है लेकिन यह एक ऐसा भाव है जो एक आयु में परिस्थितियों के साथ बदलता नहीं। परिवर्तित परिस्थितियों में अपरिवर्तित रहने वाला भाव वास्तव में प्रेम है।
‘बोलती दीवारें’ मेरे इसी विचार की व्याख्या है। यूँ तो हम सभी इंसान हैं, पर यह जष्रूरी भी नहीं। कई बार हम सिर्फ और सिर्फ अपने सपनों की कब्र बन कर रह जाते हैं क्योंकि जीते हुए भी हमारे अन्दर का असली इंसान जो हमें ‘हम’ बनाता था, मर जाता है। और कई बार हम प्रेम की आड़ में दूसरों के लिए इतनी दीवारें खड़ी कर देते हैं कि उनकी घुटन में दूसरा मर जाता है।
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Authors | |
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Binding | Hardbound |
ISBN | |
Language | Hindi |
Pages | |
Publishing Year | 2014 |
Pulisher |
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