Boond Bawri

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Boond Bawri

Boond Bawri

395.00 315.00

In stock

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Author: Padma Sachadev

Availability: 5 in stock

Pages: 364

Year: 1999

Binding: Hardbound

ISBN: 9788170556718

Language: Hindi

Publisher: Vani Prakashan

Description

बूद बावड़ी

उस रोज़ शनिवार था। पिताजी आज भी आ सकते थे। मैं अपनी किताबें झाड़कर तरतीब से लगा रही थी। भीतर एक अहसास था, पिताजी किसी तरह प्रसन्न रहें। फिर मैं रोज़ की तरह चौगान के पास बच्चों के संग खेल रही थी। झुसमुसा-सा था। सब लोग छुप-छुप जाना खेल रहे थे। अचानक मैंने देखा, मेरे पिताजी हैट और लम्बा कोट लगाये घर जा रहे थे। मज़दूर उनका सामान उठाए पीछे-पीछे आ रहा था।

शाम के समय पिताजी खेलने न जाने देते थे, इसलिए मैं बच्चों के पीछे छुप गयी। उनके आंखों से ओझल होते ही मैं डरते-डरते धड़कते मन से घर में दाख़िल हुई। देखा, मां बाहर थीं। मैंने पूछा-मां, पिताजी ? मां ने कहा-अभी तक तो नहीं आये, शायद कल आएंगे। तब हम कहां जानते थे, हम अनाथ हो चुके हैं। पर मैं बड़ी हैरान थी कि पिताजी को मैंने अपनी आंखों से घर आते देखा है, फिर ये क्या हुआ कि वो घर नहीं आये। मैंने तो सचमुच उन्हें देखा था।

दूसरे दिन सवेरे रविवार था। मां सूर्यनारायण का व्रत रखती थीं। मां ने अखरोट की दातुन की हुई थी। चूल्हे के आगे बैठी हमारे लिए पराठे बना रही थीं। चूल्हे की लपकती-आग की लौ में मां का चेहरा सूर्य की तरह चमक रहा था। उन्होंने सिर धोया हुआ था। मैं वहीं पास में एक लकड़ी लेकर बैठी थी, क्योंकि बंदर पराठे थाली में से ले जाते थे। तभी मेरी छोटी बुआ तारापतु वहां आईं। उन्होंने मां से पूछा-जयदेव कब आनेवाला है। मां ने कहा-आज ही आएंगे।

तब बुआजी ने अटकते-अटकते बताया था तारघर में कोई बुरी ख़बर आई है, जो सरकार ने छिपाने को कहा है। सवेरे तार घरवाली बता रही थी। सारा वातावरण चित्र-सा जड़ हो गया। हम बुआजी को देख रहे थे। उन्होंने रोते-रोते कहा—तुम्हारे मामा पता करने गये हैं। क्या सच है, क्या झूठ है।

तब मेरी मां ने अपने हाथ का आटे का पेड़ा आटे पर दे मारा था। आग में पानी डाल दिया था। बुआजी ने मां का हाथ थामा। तब तक कई लोग आ गये थे।

पता नहीं, आशु कहां था। मैं नितांत अकेले लोगों के बीच से गुज़रकर मंदिर भाग गयी थी। वहां मत्था टेका था, कहा कुछ न था। पिताजी न रहेंगे तो हमारा ही क्या अस्तित्व है। फिर माताजी के बड़े मामा आये थे। मैंने किसी कोने में खड़े-खड़े भय से देखा था। उन्होंने कुछ न कहा था। बस दरवाज़े से लगकर रोने लगे थे।

किसी को समाचार जानने की ज़रूरत न थी। सबको पता चल गया था। पिताजी नहीं रहे थे। हमारे महल-चौबारे सब ढह गये थे। दुनिया जैसे स्थिर हो गयी थी। अब भोगने को कुछ न रहा था। भगवान ने वो वस्तु छीन ली थी जो सबसे अमूल्य, सबसे प्रिय थी। मंज़िल पर आते-आते, भवन में घुसते ही जैसे द्वार गिर पड़ा हो।

मैं उस वक़्त सात-आठ साल की थी। दूध के दांत अभी न टूटे थे। आशु मुझसे एक बरस छोटा और श्रीकान्त मुझसे छह साल छोटा था। मेरी बाईस-तेईस बरस की अपूर्व सुन्दरी मां विधवा हो गयी थीं। हम अचानक अनाथ हो गये थे। सारी दुनिया जैसे ख़त्म हो गयी थी।

जम्मू-कश्मीर रियासत में बंटवारे की ये पहली गाज थी, जो हमारे घर पर पड़ी। मैं इन्द्रधनुषी रंगों के ख़्वाब देखने वाली छोटी-सी बच्ची एकदम सत्तर बरस की बुढ़िया हो गयी। पिताजी के न रहने से ज़्यादा मुझे मां के बिलखने का दुख होता था। मां का विलाप मुझसे सहा न जाता था। लोगों की दयालुता और रहम नश्तर की तरह मेरे सीने में चुभता था। तब सिवाय मां के मेरी आंखें कुछ न देख पाती थीं। मेरे दोनों भाई न जाने कहां थे। इतने रिश्तेदारों से घर भर गया था कि मैं मां को भी देख न सकती थी। जब भी कोई आता मेरी छाती में जैसे बम फटता। अब फिर मेरी मां ज़ोर-ज़ोर से रोएंगी। अब फिर मैं सह न सकूंगी। आसमान जैसे फट जाता है, वैसे ही मेरी नन्ही-सी छाती फट जाती थी।

पिताजी की मृत्यु की घटना अब आम हो गयी थी। मीरपुर से भी शरणार्थी आने शुरू हो गये थे। कभी-कभी लोग कहते-सियालकोट से धुआं उठ रहा है। हाहाकार पहले भी रहा होगा पर पिताजी उसके आगे दीवार की तरह थे। उनके हटते ही ये हाहाकार सीधा हमारे आंगन में आकर गिरने लगा।

टुकड़ों-टुकड़ों में जो पता चला उसे दोहराने में मुझे उसी वेदना की नदी से दोबारा पार होना पड़ता है, जिसे मैंने उन दिनों डूबकर पार किया था। पिताजी की बात करने पर मुझे दुबले-पतले चश्मा पहने हुए पिताजी टुकड़ों-टुकड़ों में ही याद आते हैं। कोई-कोई दृश्य जिसमें या तो मैं उनके हाथ धुलाती हूं तो सिर्फ़ हाथ ही याद आते हैं, उन्हें देखती हूं तो उनका तेजस्वी चेहरा याद आता है। पूरे पिताजी कभी भी याद नहीं आते। मुझे वो पूरा वक़्त याद आता है, जो मेरी स्वस्थ व अति सुन्दर मां को रोगी, जर्जर, कर्कश और बूढ़ा कर गया है।

जब पिताजी मीरपुर में चार्ज देने गये तो वो दादाजी के घर रुके होंगे। काफ़ी सामान तो पहले ही जम्मू आ गया था। अब जो थोड़ा सामान था वही पिताजी ने लाना था। जब वो जम्मू के लिए चलने लगे तब दादाजी ने कहा था- जयदेव, आज मत जाओ, आज दिशाशूल है। पिताजी ये सब न मानते थे। वो बस में बैठ गये। एक प्राइवेट बस के मालिक ने पिताजी से कहा-पंडित जी, हमारी बस में आ जाइए।

वो शायद काल की पुकार थी। पिताजी उस बस में जाकर बैठ गये। पिताजी हमेशा अगली सीट पर बैठते थे। वो सीट खाली हो गयी। सेठ ने कहा हम भी जम्मू जा रहे हैं। इकट्ठे चलेंगे। वो सेठ अपनी जमापूंजी लेकर जम्मू भाग रहा था। किसी को इसकी इत्तिला हो गयी। लाखों की सम्पत्ति थी। रास्ते में एक जगह मुसलमान गुंडों ने बस को रोकना चाहा। बस न रुकी तो उन्होंने टायर में गोली मारी। निशाना चूका; ये गोली मेरे पिताजी के माथे को चीरकर पीछे बैठी तहसीलदार की बेटी के माथे में घुस गयी। दोनों की मृत्यु वहीं हो गयी। फिर गुंडे माल लूटकर चले गये।

कहते हैं, ड्राइवर गुंडों के साथ मिला हुआ था। फिर वो बस वापस मीरपुर ले जायी गयी। जम्मू-कश्मीर रियासत में उस वक़्त ये पहली दुर्घटना मीरपुर की राह में हुई थी। इसके बाद ही लोगों ने भागना शुरू किया। पर अधिक लोगों का ख़्याल था, पाकिस्तान से यहां हमलावर न आएंगे। अगर आए तो महाराज की सेनाएं उन्हें रोकेंगी। पर जो तबाही मीरपुर में हुई, उसके निशान आज भी जगह-जगह जम्मू में मौजूद हैं।

मेरे पिताजी व उस लड़की का संस्कार मीरपुर ही में हुआ। गड़बड़ी शुरू हो चुकी थी। लोग भयभीत थे। कब हमलावर आ जाएं। मेरे पिताजी के शव का खड्ड के किनारे एक पेड़ के नीचे दाह-संस्कार हुआ। उन्हें मुखाग्नि दादाजी ने दी। सारी रात हिन्दू व मुसलमान विद्यार्थी अपने प्रिय अध्यापक के शव के आसपास पिस्तौलें लेकर खड़े रहे। पहरा देते रहे। फिर सुना, उनके फूल वहीं दरख़्त पर एक पोटली में टांग दिये थे। हम तक पहुंचाने की कोशिश दादाजी करते पर तब तक मीरपुर पर हमला हो चुका था। जब आततायी राधाकृष्ण मंदिर में आये, तब दादाजी ने राधाकृष्ण की मूर्तियों को अपने अंक में समेटा और वहीं आततायियों ने तलवार के साथ उनका वध कर दिया। दादाजी का परिवार पहले ही जम्मू आ चुका था।

फिर गांव से मेरे तायाजी आये थे। मुझे याद है, एक ऊंट पर सारी रसद लदी थी। खच्चरों पर सामान था। मेरी मां और हम थे। बड़े-बड़े ट्रंक छोटी बुआ के घर गोशाला में एक कमरे में रखवा दिये थे। घर खाली कर दिया था।

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Hardbound

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Language

Hindi

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Publishing Year

1999

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