- Description
- Additional information
- Reviews (0)
Description
बुद्ध वैराग्य तथा प्रारम्भिक कविताएँ
इस संकलन में सन् 29 से 36 के बीच लिखी कुछ कविताएँ हैं। शुरू की पाँच कविताएँ झाँसी में लिखी गयी थीं। उस समय मैं इण्टरमीडिएट के दूसरे वर्ष का छात्र था। चन्द्रशेखर आजाद के कुछ साथी मेरे मित्र थे, उनमें वैशंपायन मेरे सहपाठी थे। मुझ पर उन लोगों के राजनीतिक विचारों का काफी प्रभाव था। ‘हम गोरे हैं। मेरी पहली राजनीतिक कविता है और वह व्यंग्य कविता भी है। ‘प्रश्नोत्तर’ में क्रान्तिकारी अकेला है पर वह ‘साम्य समक्ष असीम विषमता’ को दूर करने का स्वप्न देखता है। 29-30 की झाँसी में साम्यवाद की हवा चलने लगी थी। ‘समय ज्ञान’ में स्वतन्त्रता की जय के साथ साम्यवाद की जय भी है। ‘नवयवक शक्ति’ में क्रान्तिकारी अकेला नहीं है, वह युवक शक्ति को जगाकर उससे आगे बढ़ने की कहता है। मैंने स्वामी विवेकानन्द के ‘कर्मयोग’ और ‘राजयोग’ का अनुवाद किया। ‘राजयोग’ में उन्होंने सांख्य दर्शन की व्याख्या की; उसने मुझे बहुत प्रभावित किया। सन 33 में मैंने एक लम्बी-लिखी-‘बुद्ध वैराग्य’। सन् 34 में स्वामी विवेकानन्द की दो अंग्रेज़ी कविताओं का अनुवाद मैंने किया-‘संन्यासी का गीत’ और ‘जाग्रत देश से’ ‘प्रश्नोत्तर’, ‘बुद्ध वैराग्य; और ‘संन्यासी का गीत’ में एक सूत्र सामान्य है, युवक मानवता के दुख दूर करने के लिए घर छोड़कर बाहर निकल पड़ते हैं। तीनों में युवक का अन्तर्द्वन्द्व प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से चित्रित है। पर इस सबसे सामाजिक लक्ष्य सिद्ध होता न दिखायी दे रहा था। सन् 34 में मैंने बहुत-सी कविताएँ लिखीं और कई तरह की लिखीं। एक लम्बी कविता लिखी थी ‘मेनका’ । विश्वामित्र को तपस्या से जो सिद्धि न मिली, वह उसके भंग होने से मिली। मेनका शकुन्तला को जन्म न देती तो कालिदास अपना नाटक किस पर लिखते? न् 34 में कुछ समय तक मैं निराला के साथ रहा। निराला से मैंने कुछ गलत प्रभाव ग्रहण किये थे। इनमें एक है रूमानी स्वप्नशीलता। यह मेरे गीतों में है, ‘मेनका’ में है। निराला इससे बाहर आ रहे थे, कुछ दिन में मैं भी बाहर आ गया था। दूसरी है संस्कृत बहुल हिन्दी का प्रयोग निराला तत्सम शब्दों का व्यवहार आवश्यकतानुसार, अभिव्यक्ति को समर्थ बनाने के लिए करते थे, मैं मुख्यतः ध्वनि-सौन्दर्य के लिए इस प्रवृत्ति की पराकाष्ठा है ‘मेनका’ में बानगी के तौर पर उसके प्रारम्भिक और अन्तिम अंश यहाँ दिये जा रहे हैं। मेरी समझ में यह सारा अभ्यास व्यर्थ नहीं गया। सन् 38 में मेरी जो कविताएँ ‘रूपाभ’ में छपीं, उनसे ‘बुद्ध वैराग्य’ आदि की तुलना करने पर अनुभव और अभिव्यक्ति का भेद स्पष्ट हो जायेगा।
Additional information
Authors | |
---|---|
Binding | Hardbound |
ISBN | |
Language | Hindi |
Pages | |
Publishing Year | 1997 |
Pulisher |
Reviews
There are no reviews yet.