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दलित कहानी संचयन
‘जाति म पुच्छ…चरण पुच्छ’ वाली भारतीय विचारधारा के समानान्तर मनुवादी वर्ण व्यवस्था और सदियों से अस्पृश्यता का शिकार भारतीय दलित समाज-पिछली शताब्दी में मिली आजादी के बाद-एक नये सामाजिक अभियान में बड़ी मजबूती से खड़ा हुआ है। सदियों की प्रताड़ना, उपेक्षा, सवर्णों द्वारा शोषण और सामन्तवादी मानसिकता से जूझते इस अभिशप्त वर्ग ने अब आर-पार की लड़ाई शुरू कर दी है, ताकि अपने बलबूते पर-अपने मूल्यों पर, इसे सर्वथा नई पहचान मिले, सम्मान मिले।
संस्कृति और साहित्य में नया विमर्श और प्रस्थान-बिन्दु लेकर उपस्थित दलित रचनाकारों ने अपने अनुभव की जमीन पर ही अपनी रचनाओं को मुखर किया है-बिना किसी लाग-लपेट और सौन्दर्यवादियों के स्वीकृत मूल्यों और अवधारणाओं की परवाह किये।
दलित कहानी संचयन छह भारतीय भाषाओं में लिखित अड़तालीस कहानियों का प्रतिनिधि संकलन है। ये कहानियाँ दलित वर्ग के लेखकों द्वारा रचित ऐसी रचनाएँ हैं, जो दलित जीवन की यातना, पीड़ा, आक्रोश, प्रतिरोध और संघर्ष की संवेदना से पगी हैं। भीतर और बाहर दोनों तरफ़ जूझने वाली इन कहानियों का मुख्य आधार कला या शैली नहीं, वरन् भाषा और कथ्य हैं। अमानवीय जुल्म, अत्याचार और सहनशीलता को वाणी देने वाली ये कहानियाँ अपना एक अलग ही सौन्दर्य-शास्त्र गढ़ती दिखाई देती हैं। इन कहानियों में दलित जीवन के कई कोण हैं-जीवन से जूझने के, जिन्दा रहने के, पीड़ा सहने के और उससे उबरने के।
समय के लम्बे अन्तराल को छूती प्रस्तुत संकलन की कहानियों में दलित चेतना के उदय से लेकर संकल्प बनने तक का विकास उजागर होता है। ‘गुलाम हूँ मैं’ का अहसास डंक मारता दिखता है तो उस अहसास से मुक्ति की छटपटाहट भी कुलबुलाती नजर आती है और नजर आता है यह सपना, ‘‘जाति नहीं, मनुष्य हूँ मैं-समाज का साझेदार हूँ मैं-औरों की तरह मेरी भी जीने की शर्तें हैं।’’ यही मुक्ति-स्वप्न इन कहानियों को दिशा देता है। कहीं वह ‘अप्पदीपो भव’ बनकर रोशन हो जाता है और अँधेरे को काटने लगता है तो कहीं संगठित होकर योजना बनाता है और कहीं सीधे संघर्ष में उतरकर राह तैयार करता है।
पहली दलित कहानी का जन्म
ऐसे तो कहानी की उत्पत्ति तब हुई होगी, जब मनुष्य ने भाषा गढ़ ली होगी। एक तरफ़ वह आदि मनुष्य प्रकृति से जूझता रहा होगा, दूसरी तरफ़ उसी निर्भर या उसी के सहारे जीवित था। सम्भवतः प्रकृति के साथ उसका मित्र और शत्रु, संरक्षक और उपभोक्ता, प्रेम और घृणा का यह रिश्ता उसके मनुष्य बनने के साथ ही क़ायम हो गया था। प्रेम ने जहाँ उसे यह रिश्ता उसके मनुष्य बनने के साथ ही क़ायम हो गया था। प्रेम ने जहाँ उसे कल्पना दी और दी उम्मीदें, वहीं घृणा ने उसे सच्चाइयों का बोध कराया। प्रकृति की विध्वसंक शक्तियों के अहसास ने उसे उन पर विजय पाने की योजना के लिए प्रेरित किया और योजना के लिए उसने लिया कल्पना का सहारा। प्रकृति से जीवन पाकर वह जिन्दा था, यह भी यथार्थ था और प्रकृति ही उसका विनाश करती थी, यह सच भी वह जान गया था। जब इस यथार्थ के अनुसार उसने अपनी सन्तति या संगिनी को प्रकृति के सन्दर्भ में अथवा प्रकृति के प्रत्याशित-अप्रत्याशिक स्वभाव के कारण घटी घटनाओं और हादसों को अपनी आप-बीती बताना शुरू किया होगा, सम्भवतः तभी कहानी का जन्म हुआ होगा। कविता की तरह कहानी एकाएक नहीं फूटा करती। कहानी तो घटा करती है यानी घटती है, इसलिए कहानी तो विकसित हुई होगी, गढ़ी और तराशी भी गई होगी। आदिम मनुष्य की कहानी भी घटी थी जो एक सामूहिक कथा थी या कहें कि आदिम गाथा थी, जो शुरू में किसी एक भौगोलिक क्षेत्र में समानरूपता रही होगी। पर अन्न की खोज में निकला मनुष्य जब पत्थर युग से लौह युग पार करता हुआ सभ्यता के युग में पहुँचा, तो वह अपने लिए कई इतिहास मिथकों स्मृतियों विचारों धाराणाओं, आस्थाओं विश्वासों एवं शक्ति केन्द्रों का निर्माण कर चुका था, जिन पर शायद वह आस्था रखने लगा था। जब वह प्रकृति से जूझा होगा तो उसने तर्क किए होंगे, तरकीब लड़ाई या योजना बनाई होगी, पर जब वह प्रकृति पर मुग्ध होकर अभिभूत, विस्मित और चकित हुआ होगा तो चमत्कृत हो गया होगा, जिसने उसमें एक आस्था पैदा करने के साथ साथ डर भी पैदा किया होगा।
कालान्तर में, सभ्यता की यात्रा में मनुष्य खेमों में बँटने लगा। फिर खेमों में होड़ लगी, युद्ध जय पराजय हुई और विजेता खेमा खुद को दूसरे से श्रेष्ठ समझने लगा और वह श्रेणियों में बँट गया। समानता एवं सामूहिकता ख़त्म होने लगी। जिस युग में सामूहिकता ख़त्म होने पर वह किसी व्यक्ति का ग़ुलाम और दास बना होगा-उसी दिन ‘स्वामी’ का जन्म हुआ, शायद पहली दलित कहानी भी उसी दिन घटी होगी। चूँकि दासता ही दलित अवधारणा की जननी है। यह दासता उसकी पराजय के कारण हो या उसके रंग के कारण जन्म, जाति या क़बीलों के स्तर की भिन्नता के कारण, इसका सतत विकास होता चला गया। दासता की मानसिकता के विकास के साथ-साथ समानता और सामूहिकता समाप्त होती गईं। समूह पर भी व्यक्ति क़ाबिज़ होने लगा। वे सैनिक के रूप में राजा के, भक्त के रूप में भगवान के ,अनुयायी के रूप में धर्म के और शिष्य के रूप में गुरु के दास बन गए। श्रेष्ठ लोगों की जमातें बनने की प्रक्रिया में ही हीन-भावना का जन्म हुआ होगा, चूँकि, श्रेष्ठता की यह प्रक्रिया सब-अस्तित्व से नहीं, कमतर और कमज़ोर को नष्ट करके, निम्न वर्गों की कीमत पर उच्च वर्गों के निर्माण के सम्पन्न होती है न जाने कितनी कहानियाँ जन्मीं और मरी होंगी इस दौर में ! विरोध का स्वर ही दलित कहानी का स्वर और ताक़त होता है, किन्तु सभ्यता का मूल मन्त्र है-‘विरोध को खत्म करना’, इसलिए अन्याय ‘प्रायश्चित्त’ का पर्याय बना दिया गया और दुःख पिछले जन्म का कर्मफल’। यही धारणा दलित कहानी की पोषक बनी और उनकी निरन्तरता का कारण भी !
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Authors | |
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Binding | Paperback |
ISBN | |
Language | Hindi |
Pages | |
Publishing Year | 2019 |
Pulisher |
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