Devki Ka Athwa Beta

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Devki Ka Athwa Beta

Devki Ka Athwa Beta

150.00 128.00

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150.00 128.00

Author: Yogendra Pratap Singh

Availability: 5 in stock

Pages: 104

Year: 2011

Binding: Hardbound

ISBN: 9789389742251

Language: Hindi

Publisher: Lokbharti Prakashan

Description

देवकी का आठवाँ बेटा

श्रीकृष्ण की कथा अब तक प्रायः नन्द तथा यशोदा के पक्ष से देखी जाती रही है। संस्कृत तथा हिन्दी साहित्य ने यशोदा के पक्ष से इस कथा को इतनी बार दुहराया है कि कृष्ण की मूल जननी देवकी तथा वसुदेव दोनों साहित्य एवं इतिहास के हाशिए पर पहुँच गये हैं। इस उपन्यास में श्रीकृष्ण कथा को देवकी-वसुदेव के पक्ष से देखा गया है और यहाँ पूरी चेष्ठा की गई है कि उन्हें हाशिए से उठाकर भारतीय साहित्य तथा इतिहास के मुख्य पृष्ठ पर स्थापित किया जाय। देवकी की कथा अगाध दुःख से भरी करुणा के उन्मेष की कथा है और कारागार के प्राचीरों से घिरी असह्य पीड़ा भोगने वाली देवकी की जिजीविषा ही श्रीकृष्ण जैसे महान भागवत व्यक्तित्व के निर्मित करने का मुख्य कारण और भारतीय संस्कृति को तेजोमय व्यक्तित्व-श्रीकृष्ण-प्रदान करने वाली देवकी व्यथा को उभारना ही इस उपन्यास का मन्तव्य है।

पूर्वकथन

देवकी का आठवाँ बेटा उपन्यास श्रीकृष्ण की पौराणिक तथा ईषद् ऐतिहासिक कथा की प्रतिच्छाया है। भारतीय संस्कृति में इतिहास का मन्तव्य पुराणों में छिपा है और ऐसा छिपा है कि खोजने से केवल उसका नैतिक धरातल ही मिल पाता है। मानवीय चरित्र पुरागाथात्मक आवरण है, लेकिन यह आवरण कपोल कल्पना मात्र नहीं है। पौराणिक कथाओं के मन्तव्य अनेक मिथकीय एवं निजंधरी आख्यानों से ढँके हैं और उनको मात्र कल्पना का विषय मानना हमारी समझ की विसंगति है। इन पुरागाथाओं की काल्पनिक रूढ़ियाँ कथात्मक अभिप्राय, मिथकीय, सन्दर्भ तथा निजंधरी कथाओं में जीवन के स्थायी तथा शाश्वत् मूल्य छिपे हैं। ये मूल्य देश, काल के परे हैं और उनको प्राय: कोरी कल्पना मात्र कहकर उपहास का विषय बनाते हैं। वस्तुत: इन पुराकथाओं के मिथकीय सन्दर्भों रूढ़ियों एवं अभिप्रायों आदि को पुन: समझने की जरूरत है। आधुनिक वैज्ञानिक चिन्तन के विकास काल में भी कुछ ऐसे सनातन प्रश्न है, जिनका उत्तर न विज्ञान के पास है और न नव्य दर्शन के पास। इसी सत्य का एक पक्ष नियति का नियंत्रण विहीन होना है। नियति पर किसी का और कभी भी नियंत्रण नहीं रहा है, और न भविष्य में होने की सम्भावना है। नियति का नियंत्रण विहीन होना है। नियति पर किसी का और कभी भी नियंत्रण नहीं रहा है, और न भविष्य में होने की सम्भावना है। नियति अज्ञेय है। अगले क्षण क्या घटित होगा, वह घटित किस दिशा की ओर हमारे जीवन की धारा को मोड़ देगा-कौन जानता है। श्रीकृष्ण की इस कथा में नियति के इस प्रश्न को बल देकर उठाया गया है। इसी प्रकार का प्रश्न आज दु:ख का है। दु:ख एक दर्शन है और इससे मुक्ति की छटपटाहट में भारतीय दर्शन के विविध धरातलों का जन्म हुआ है। योग, पूर्व मीमांसा, सांख्य, उत्तर-मीमांसा, बौद्ध, जैन आदि सभी-के-सभी चिन्तन दु:ख की छटपटाहट में जन्मे हैं और अन्त में, मुक्ति की अवधारणा की स्थापना में उनका समापन हुआ है। दु:ख देता है, दु:ख माँजता है, दु:ख दृष्टि निर्मल करता है-दु:ख विवेक को साधता है-सही सोचने सही करने की दिशा की ओर इंगित करता है दु:ख अर्थवान अवधारणा है और उसका आत्यन्तिक वरण ही आत्म मुक्ति है। दु:ख जीवन की यातनाभरी दृष्टि के बीच सनातन बिन्दुओं की ओर इंगित करता है। कृष्ण माता देवकी की कथा भारतीय दर्शन की अगाध दु:ख भरी करुणा के उन्मेष की कथा है।

इन्हीं दो शाश्वत् बिन्दुओं के साथ मूल प्रश्न कृष्ण कथा का भी है। यद्यपि एक दृष्टि यह भी है कि कथाओं के माध्यम से श्रीकृष्ण में निहित मनुष्य का उद्घाटन किया जाए, किन्तु मनुष्य का यह पक्ष पौराणिक वृत्त में इतना घुलमिल गया है भगवान श्रीकृष्ण की कथा में मानव कृष्ण को खोजना एक दुष्कर कार्य है। स्वयं महाभारत जो उनके पक्ष को उद्घाटित करने पर बल देता है, वह एक स्थान पर कहता है कि-

न भूत संघ संस्थानो देवस्य परमात्मन:,

यो वेत्ति भौतिकं देहं कृष्णस्य परमात्मन:।

 

स सर्वस्मात् वहिष्कार्य: श्रौतस्मार्तविधानत:,

‘‘मुखं तस्यावलोक्यापि सचैल: स्नानमाचरेत।।

 

– महाभारत

परमात्मा का शरीर भूत समुदाय से नहीं बना हुआ है। जो मनुष्य श्रीकृष्ण परमात्मा के शरीर को भौतिक मानता है, उसका समस्त स्मार्त कर्मों से बहिष्कार कर देना चाहिए। यहाँ तक कि उसका मुँह देखने पर भी सचैल (वस्त्रसहित) स्नान करना चाहिए।’’

श्रीकृष्ण में मनुष्य तत्त्व को खोजने के जो प्रयास हुए हैं उनमें भी अतिरंजित तत्त्वों के बिना (जो मानवीय सम्भावनाओं के इतर हैं) काम नहीं चल सका है। इससे बचने का एक दूसरा उपाय है-अतिरंजित मिथकीय चरित्रों के मूल में पुराणकारों ने जो अभिप्राय छिपाये हैं, उनको उद्घाटित करना और सचमुच इन मिथकीय कल्पनाओं में निहितार्थ संकेत की यदि सही-सही ढंग से व्याख्या कर सकें तो उनसे निकलने वाले अर्थों द्वारा उनमें निहित भागवत-मर्म की रक्षा की जा सकती है।

इस प्रकार इस उपन्यास की मूल चिन्ता यही है कि श्रीकृष्ण के पुराण व्यंजित भागवतमर्म की पूरी रक्षा की जाए, क्योंकि उनका दैवत् व्यक्तित्व जिस विशिष्टार्थ का सृजन करता है-यदि क्षरित हो गया तो भारतीय संस्कृति में श्रीकृष्ण को फिर से नहीं प्राप्त किया जा सकता। श्रीकृष्ण की प्रस्तुति के पीछे भारतीय चिन्तकों यथा-व्यास, पराशर, शुकदेव आदि की जो मूल चिन्ता रही है, वह अकारण नहीं है-और यह उपन्यास इसीलिए परम्परा के उन सभी ऋषियों का ऋणी है, जिन्होंने इस महनीय तेजोमय श्रीकृष्ण के व्यक्तित्व को रचा है।

अन्त में इस, उपन्यास की मूल प्रेरणा के लिए लोकभारती के व्यवस्थापक श्री रमेश जी तथा दिनेश जी के प्रति हृदय से आभार व्यक्त करता हूँ।

गंगा दशहरा, रविवार, 15 जून, 1997

– योगेन्द्र प्रताप सिंह

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Hardbound

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Language

Hindi

Pages

Publishing Year

2011

Pulisher

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