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Description
दिल्ली शहर दर शहर
एक वक्त के बाद कोई भी शहर वहाँ रहने वालों के लिए सिर्फ शहर नहीं, जीने का तरीका हो जाता है। जिस तरह हम धीरे-धीरे शहर को बनाते हैं, बाद में उसी तरह शहर हमें बनाने लगता है और हम ‘दिल्ली वाले’, ‘मुम्बई वाले’ या ‘आगरावाले’ कहे जाने लगते हैं।
सुपरिचित आलोचक निर्मला जैन की यह कृति एक दिल्ली वाले की तरफ से अपने शहर को दिया गया उपहार है। बराबर सजग और चुस्त उनकी लेखनी से उतरी हुई यह किताब बीसवीं शताब्दी की दिल्ली के स्याह-सफेद और ऊँचाइयों-नीचाइयों के साथ न सिर्फ उसके विकास क्रम को रेखांकित करती है, बल्कि उन दिशाओं की तरफ भी इशारा करती है जिधर यह शहर जा रहा है, और जिन्हें सिर्फ वही आदमी महसूस कर सकता है जिसे अपने शहर से प्यार हो।
सांस्कृतिक ‘मेल्टिंग पॉट’ बनी आज की दिल्ली के हम बाशिंदे, जिन्हें अपने मतलब भर से ज्यादा दिल्ली को न देखने की फुरसत है, न समझने की जिज्ञासा, नहीं जानते कि आज से मात्र 60-70 साल पहले यह शहर कैसा था, कैसी जिन्दगी पुरानी और असली दिल्ली की गलियों में धड़कती थी। हममें से अनेक यह भी नहीं जानते कि आज जिस नई दिल्ली की सत्ता देश को नियन्त्रित करती है उसकी कुशादा, शफ़्फ़ाफ़ सड़कें कैसे वजूद में आईं, और दोनों दिल्लियों के बीच हमने क्या खोया और क्या पाया।
निर्मला जी की यह किताब 40 के दशक से सदी के लगभग अन्त तक की दिल्ली का देखा और जिया हुआ लेखा-जोखा है। इसमें साहित्य और शिक्षा के मोर्चों पर आजादी के बाद खड़ा होता हुआ देश भी है, और वे तमाम राजनीतिक और सामाजिक प्रक्रियाएँ भी जिन्हें हमारे भवितव्य का श्रेय दिया जाना है।
Additional information
Authors | |
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Binding | Paperback |
ISBN | |
Pages | |
Publishing Year | 2023 |
Pulisher | |
Language | Hindi |
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