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Description
डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी की अन्तिम यात्रा
यात्रा का उद्देश्य
डॉ.श्यामाप्रसाद मुखर्जी की जीवन तथा राजनीतिक अन्तिम यात्रा का विवरण लिखते समय यह आवश्यक है कि उस कारण का उल्लेख कर दिया जाए जिसके लिए यह यात्रा की गई थी। अत: कश्मीर की समस्या, जिसको सुलझाना इस यात्रा का उद्देश्य था, इस पुस्तिका का प्रथम अध्याय बनना स्वाभाविक है।
जैसी छ: सौ के लगभग अन्य देसी रियासतें ब्रिटिश काल के भारत में थीं, वैसी ही कश्मीर एक रियासत थी। स्वराज्य प्राप्ति के पश्चात् जैसे प्राय: वे सब रियासतें भारत में विलीन हो गईं, वैसे कश्मीर नहीं हुआ। इसका कारण पंडित जवाहरलाल नेहरू का सर्व-विख्यात हठ ही था। उन्होंने श्री वल्लभ भाई पटेल को, जिनके हाथ में शेष भारतीय रियासतों की समस्या थी, कश्मीर की समस्या न देकर यह समस्या स्वयं सुलझाने के लिए अपने हाथों में रखी। जब जब श्री पटेल से कश्मीर के विषय में बात करने का प्रयास किया गया उन्होंने श्री नेहरू की ओर उँगली से संकेत कर दिया और श्री नेहरू ने देश के किसी अन्य जानकार अथवा नेता की सम्मति लिये बिना कश्मीर के विषय में स्वयं ही अपनी नीति निर्धारित की।
जब महाराजा हरिसिंह और शेख अब्दुल्ला ने ये वक्तव्य दिए कि कश्मीर भारत के साथ मिलना चाहता है तो श्री नेहरू को चाहिए था कि वे इस रियासत के विषय में श्री पटेल को उचित कार्रवाई करने की स्वीकृति दे देते; परन्तु ऐसा न कर श्री नेहरू ने इस विषय को सर्वथा अपने हाथों में रखा और इस पर अपनी इच्छानुसार प्रयोग करने लगे, जिससे समस्या दिन-प्रतिदिन बिगड़ती गई। सर्वप्रथम पंडित नेहरू ने कश्मीर भारत का अंग हो या न हो, इस पर कश्मीर में जनमत-संग्रह (Plebiscite) करने की घोषणा कर दी। एक ओर तो शेख अब्दुल्ला को देश का नेता मान लिया और उनको कश्मीर का मुख्य मंत्री बनवाने का हठ किया एवं दूसरी ओर उसके कहने को भी अमान्य कर यह सिद्ध कर दिया कि वह वहाँ कुछ नहीं है। जूनागढ़ राज्य के भारत में सम्मिलित न होने पर जनमत हुआ था, परन्तु तब वहाँ की जनता के नेता श्री साँवलदास गांधी और वहाँ के नवाब में मतभेद था। कश्मीर में जनता के नेता शेख अब्दुल्ला और कश्मीर के महाराजा, दोनों कश्मीर को भारत में सम्मिलित करने के पक्ष में थे।
दूसरी भूल जो श्री नेहरू से कश्मीर के विषय में हुई वह कश्मीर के प्रश्न को यू.एन.ओ.में ले जाना था। तत्पश्चात् जिस विषय में यू.एन.ओ.में मामला ले जाया गया था, उसको छोड़ कश्मीर के प्लैबिसाइट का विषय यू.एन.ओ.में उपस्थित होने दिया गया। यह स्मरण रखना चाहिए कि यू.एन.ओ. में भारत सरकार का दावा यह था कि कश्मीर पर, जो भारत का एक अंग बन चुका है, पाकिस्तान ने आक्रमण किया है पहले तो पाकिस्तान ने माना नहीं कि उसने आक्रमण किया है। जब माना तो आक्रमणकारी सेनाओं को वापस किये बिना ही प्लैबिसाइट करने पर विचार होने लगा। पंडित नेहरू ने यू.एन.ओ.में इस विषय पर बात होने दी और स्वयं इस विषय में बातचीत में सहयोग दिया। परिणाम यह हुआ कि शेख अब्दुल्ला के मस्तिष्क में कश्मीर को स्वतन्त्र रखने का विचार उत्पन्न हो गया। लोगों ने पंडित नेहरू को सचेत किया, परन्तु नेहरू जी ने परिस्थिति को स्पष्ट न कर लीपा-पोती से काम लिया।
शेख मुहम्मद अब्दुल्ला ने 1950 में, पैरिस में, स्वतन्त्र कश्मीर का विचार सबसे पहले प्रकट किया था। कश्मीर भारत के साथ मिले अथवा पाकिस्तान के साथ, इस विषय में शेख साहब ने यह कहा कि एक तीसरा विचार भी है और वह यह कि कश्मीर स्वतन्त्र देश हो। इस पर भारत में हल्ला-गुल्ला मचा। जब शेख साहब पैरिस से दिल्ली लौटे तो उनको अपनी सफाई पेस करने के लिए श्री पटेल ने पार्लियामैण्टरी कांग्रेस पार्टी के सम्मुख उपस्थित होने पर बाध्य किया। शेख साहब ने बहुत चतुराई से यह कह दिया कि उनका अभिप्राय यह नहीं था। इसके पश्चात् भी यत्र-तत्र वे इस बात की चर्चा करते रहे कि कश्मीर स्वतन्त्र राज्य है और यदि भारत के साथ सम्मिलित होगा तो कुछ राजनीतिक विषयों में ही होगा।
भारत के संविधान में यह लिखा है कि कश्मीर भारत के साथ सुरक्षा, यातायात और विदेशीय सम्बन्धों में सम्मिलित होता है। आरम्भ में प्राय: सब भारतीय राज्य इतने अंशों में ही भारत में सम्मिलित हुए थे, परन्तु संविधान बनने से पूर्व ही श्री पटेल जी के प्रयत्न से वे सब रियासतें पूर्ण रूप से भारत में सम्मिलित हो गई थीं। इधर कश्मीर जिसकी समस्या को श्री पंडित नेहरू जी ने अपने हाथों में सुलझाने के लिए लिया हुआ था, संविधान बनने तक केवल इन विषयों में ही सम्मिलित हो सका। इस संविधान पर कश्मीर के प्रतिनिधियों के हस्ताक्षर हुए हैं। पर इस पर भी इस विषय पर लोकमत संग्रह का हठ बना रहा और शेख साहब ने अपना पैंतरा बदलना आरम्भ कर दिया। कश्मीर भारत के साथ सम्मिलित हो अथवा पाकिस्तान के साथ, इस विषय पर जनमत होना भारत के संविधान के विरुद्ध है। यह बात पंडित जी ने अपने निजी रूप में कही थी। देश इसके लिए उत्तरदायी नहीं।
1951 में कश्मीर की विधान सभा का निर्वाचन हुआ और कर शेख अब्दुल्ला के पार्टी के लोग पूर्ण रूप में निर्वाचन में सफल हुए। इस ज्यों-त्यों का अर्थ असंगत होने से यहाँ नहीं लिखा जाता। इस पर भी इस विधान सभा को बने दो वर्ष हो चुके थे, इस पर भी कश्मीर का भारत से किस प्रकार का सम्बन्ध हो, इस विषय में कुछ निश्चय नहीं हो सका था।
जम्मू में प्रजा परिषद् के लोग कश्मीर की विधान सभा में जाकर अपना दृष्टिकोण उपस्थित करना चाहते थे, परन्तु जब इस पार्टी के उम्मीदवारों के, असत्य तथा कृत्रिम कारणों से, आवेदन पत्र रद्द कर दिये गये तो उन्होंने इस विधान सभा में न जा सकने पर अपनी माँगें घोषित कर दीं। उनकी माँगें कश्मीर विधान सभा के सम्मुख थीं। पंडित नेहरू जी तथा भारत सरकार को यह विषय कश्मीर के भीतर का विषय मान, इसमें हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए था। एक ओर तो पंडित नेहरू ने कश्मीर विधान सभा बनने दी और साथ ही तत्कालीन कश्मीर सरकार से प्रजा परिषद् के उम्मीदवारों के आवेदन-पत्रों के रद्द हो जाने पर हस्तक्षेप करना उचित नहीं माना, तो प्रजा परिषद् पार्टी ने अपनी मांगें घोषित कर दीं। उनका कहना था कि कश्मीर की विधान सभा यह पारित कर दे कि कश्मीर भारत का पूर्ण रूप में अभिन्न अंग है। जैसे अन्य ‘बी’ श्रेणी के राज्य हैं वैसे कश्मीर भी हो। यह माँग न तो असंगत थी और न ही साम्प्रदायिक। यदि तो यह कहा जाता कि कश्मीर के किसी क्षेत्र में से मुसलमानों अथवा हिन्दुओं को निकाला जाए अथवा हिन्दुओं के किसी अधिकार की माँग की जाती, तब तो इस कहने में कुछ तथ्य भी था कि प्रजा परिषद् की माँग साम्प्रदायिक है ? परन्तु ऐसा नहीं था और इस मांग को साम्प्रदायिक क्यों कहा गया, इसका उत्तर अभी तक संतोषजनक नहीं मिला।
जम्मू के लोग कश्मीर के अन्तर्गत थे। उनको सन्देह हुआ कि जम्मू कश्मीर की विधान सभा कश्मीर का भारत से सम्बन्ध अधूरा और शिथिल रखना चाहती है। उन्होंने अपना संशय कश्मीर की जनता के सम्मुख रखा। इस पर शेख अब्दुल्ला की पार्टी ने प्रजा परिषद् को गालियाँ देनी आरम्भ कर दीं। जब प्रजा परिषद् का आन्दोलन जोर पकड़ने लगा तो शेख साहब ने, उनको आश्वासन देने के स्थान पर उनसे झगड़ा आरम्भ कर दिया। प्रजा परिषद् को अवैध घोषित कर दिया। जम्मू में धारा 50 लगा दी। इसका अभिप्राय आन्दोलन का मुख बंद करना था।
यहाँ एक भ्रम-निवारण करना आवश्यक है। आन्दोलन का अर्थ कानून भंग करना नहीं होता। आन्दोलन का अर्थ तो जनता में विचार-प्रोत्साहन करना और अपने विचारों का प्रचार करना मात्र है। इतने मात्र को दबाने के लिए यदि सरकार कोई कठोर कार्य करती है तो उस कार्रवाई का विरोध कानून भंग नहीं प्रत्युत अपने नागरिक अधिकारों की रक्षा है। यही जम्मू में हुआ। प्रजा परिषद् के लोग अपनी विधान सभा से यह माँग कर रहे थे कि कश्मीर का भारत में पूर्ण रूप से विलय हो। यह आन्दोलन जम्मू में बल पकड़ने लगा तो सरकार का आसन डोलने लगा और सरकार के कारिन्दों ने प्रजा परिषद् का मुख बन्द करने के लिए धारा 50 का प्रयोग किया। प्रजा परिषद् के जलसे-जुलूस व्याख्यान बन्द करने के लिए लाठियाँ चलीं और गोलीकाण्ड होने लगे। कोई भी स्वाभिमानी मनुष्य इस प्रकार के अत्याचार को सहन नहीं कर सकता। 25 नवम्बर 1952 से पूर्व प्रजा परिषद् के आन्दोलन में कोई भी अशान्तिमय घटना नहीं हुई थी। इसपर भी इसको बन्द करने के लिए उक्त व्यवहार किया गया। इससे प्रजा-परिषद् के उद्देश्यों से सहानुभूति रखने वाले भारतवासियों के मन में चिन्ता उत्पन्न हो गई।
यहाँ एक विचारणीय बात यह भी है कि भारत सरकार ने प्रजा परिषद् के आन्दोलन को दबाने के लिए भारत से पुलिस और सेना भेजी। उन लोगों का गला घोंटने के लिए, जो जम्मू और कश्मीर का भारत में विलय चाहते थे, भारत सरकार फौज और पुलिस भेजे, यह बात देशभक्तों को असह्य हो उठी। यह देख कि भारत सरकार, जो उस समय पूर्णरूपेण पंडित जवाहरलाल नेहरू की मुट्ठी में थी, उन पर लाठी और गोली चलवा रही है जो लोग जम्मू कश्मीर को भारत का अंग बनाने के लिए आन्दोलन चला रहे थे, देश का हित-चिन्तन करने वालों की आँखों में रक्ताश्रु आ गए। ऐसी मूर्खता और नृशंसता का चित्र संसार में कहीं नहीं मिलेगा।
इस पर भारतीय जनसंघ ने कानपुर में, अपने एक प्रस्ताव में यह घोषित किया कि वह प्रजा परिषद् जम्मू की माँग का समर्थन करता है तथा जम्मू कश्मीर सरकार से अनुरोध करता है कि प्रजा परिषद् के लोगों और भारत सरकार से इस विषय में एक गोलमेज़ कान्फरेन्स कर अपने विचार प्रकाशित करे। यदि ऐसा नहीं किया जाएगा तो इस विषय पर पूर्ण देश में आन्दोलन खड़ा किया जाएगा।
इसविषय पर भारतीय जनसंघ के प्रधान श्री श्यामाप्रसाद मुखर्जी ने पंडित जवाहरलाल नेहरू और शेख अब्दुल्ला से पत्र व्यवहार किया और उनसे निवेदन किया कि गोलमेज़ कान्फरेन्स की जाए। एक लम्बी चिट्ठी-पत्री पर भी जब प्रजा परिषद् से बातचीत करने के लिए शेख अब्दुल्ला तैयार नहीं हुए और श्री पंडित नेहरू जी ने इस पत्र-व्यवहार में प्रजा परिषद् पर तथा भारतीय जनसंघ पर असंगत और असत्य दोषारोपण किए तथा कश्मीर में प्रजा परिषद् पर लगाए प्रतिबन्धों को हटाने के स्थान, उन पर गोलीकाण्ड होने लगे तो इच्छा न रहते हुए भी भारतवर्ष में प्रजा परिषद् की मांग के समर्थन में जलसे-जुलूस और प्रदर्शन किए जाने लगे।
इससे नेहरू सरकार घबराने लगी। भारतीय जनसंघ का कहना यह था कि कश्मीर तथा जम्मू का भारतवर्ष से सम्बन्ध स्थापित हो चुका है, उस विषय में जनमत-संग्रह व्यर्थ और विधान के विरुद्ध है। रही उस सम्बन्ध की सीमा, वह कश्मीर की विधान सभा निश्चय करे और उस सीमा को अधिक कराने के लिए तथा इस विषय में शीघ्र निश्चय कराने में आन्दोलन करना प्रजा परिषद् का अधिकार है। इस अधिकार को दबाने का शेख अब्दुल्ला का प्रयास अन्याय है। इसी कारण प्रजा परिषद् पर लगाए प्रतिबन्ध उठ जाने चाहिएँ।
जनसंघ के आन्दोलन का प्रभाव सबसे अधिक पंजाब में हुआ। कांग्रेस सरकार की दूषित नीति की निन्दा चारों ओर होने लगी। कांग्रेसी मिनिस्टरों को जनता में जाकर भाषण देना कठिन होने लगा। इस पर भी पंजाब अथवा दिल्ली में किसी भी स्थान पर कोई हिंसात्मक कार्य नहीं हुआ। प्रजातन्त्रात्मक पद्धति में राज्य को नियन्त्रण में रखने का एक ही उपाय है कि यदि किसी विषय पर जनता का मत सरकार के अनुकूल न रहे तो जनता जलसे-जुलूसों तथा प्रदर्शनों से अपने मन की बात सरकार तक पहुंचाए। इसको बन्द करना तो भारत के संविधान की अवहेलना करना है। यह मनुष्य के नागरिक अधिकारों पर कुठाराघात करना है।
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Authors | |
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Binding | Paperback |
ISBN | |
Language | Hindi |
Pages | |
Publishing Year | 2016 |
Pulisher |
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