- Description
- Additional information
- Reviews (0)
Description
एक समय था
रघुवीर सहाय का यह अंतिम कविता-संग्रह है हालाँकि उनका चरम दस्तावेज नहीं। | ये बची-खुची कविताएँ नहीं हैं जिन्हें हम एक दिवंगत कवि के लिए उचित सहानुभूति से पढ़ें। ये ऐसे रचनाएँ भी नहीं हैं जिनमें किसी तरह की शक्ति या सजगता का अधेड़ छीजन दिखायी पड़े। आजादी, न्याय और समता के लिए रघुवीर सहाय का चौकन्ना संघर्ष इस संग्रह में उतना ही प्रखर है जितनी बेचैन है उनकी भाषा की तलाश-अमिधा के जीवन को अभिधा में व्यक्त करने की जिद ताकि अर्थान्तर के इस चतुर समय में उनकी बोली के दूसरे अर्थ न लग जायें। रघुवीर सहाय की जिजीविषा इस पूरे संग्रह के आरपार स्पन्दित है : उसमे विषाद है पर निरुपायता नहीं। उसमे दुःख है पर हाथ पर हाथ धरे बैठी लाचारी नहीं। वे अभी जीना चाहते हैं ‘‘कविता के लिए नहीं/कुछ करने के लिए कि मेरी संतान कुत्ते की मौत न मरे।’’
कविता के दृश्यालेख में फिर बच्चों, लड़कियों, पत्नी, अधेड़ों, परिवार, लोगों आदि के चेहरे हैं। पर उन्हें इतिहास या विचारधारा के दारुयोषितों की तरह नहीं, बल्कि अपने संघर्ष, अपनी लाचारी या अपनी उम्मीद की झिलमिल में व्यक्तियों की तरह देखा-पहचाना गया है। कविता नैतिक बयान है – ऐसा जो अत्याचार और अन्याय की बहुत महीन-बारीक छायाओं को भी अनदेखे नहीं जाने देता, न ही अपनी शिरकत की शिनाख्त करने में कभी और कहीं चूकता है। यहाँ नेकदिली या भलमनसाहत से उपजी या करुणा के चीकट में लिपटी अभिव्यक्ति नहीं है, बल्कि नैतिक संवेदना और जिम्मेदारी का बेबाक-अचूक, हालाँकि एकदम स्वाभाविक प्रस्फुटन है। अत्याचार और गैरबराबरी के ऐश्वर्य और वैभव के विरुद्ध यह कविता जिंदगी की निपट साधारणता में भी प्रतिरोध और संघर्ष की असमाप्य मानवीय सम्भावना की कविता है। भाषा उनके यहाँ कौशल का नहीं, अपनी पूरी ऐंद्रिकता में, नैतिक तलाश और आग्रह का हथियार है।
बीसवीं शताब्दी के अंत के निकट यह बात साफ़ देखि-पहचानी जा सकती है कि हिंदी भाषा को उसका नैतिक संवेदन और मानवसम्बन्धों की उसकी समझ देने में जिन लेखकों ने प्रमुख भूमिका निभायी है उनमे रघुवीर सहाय का नाम बहुत ऊपर है। हिंदी कविता की संरचना, संभावना और संवेदना की मौलिक रूप से बदलनेवाले कालजयी कवियों में निश्चय ही रघुवीर सहाय हैं : हिंदी में गद्य को ऐसा विन्यास बहुत कम मिला है कि वह कविता हो जाये जैसा कि रघुवीर सहाय की कविता में इधर, और इस संग्रह में विपुलता से, हुआ है। अंतिम चरण में रघुवीर सहाय की कविता पहले जैसी चित्रमय नहीं रही पर उसमे, उनकी निरालंकार शैली में, मूर्तिमत्ता है – वह पारदर्शिता, जो उनकी कविता की विशिष्टता रही है, अधिक उत्कट, सघन और तीक्ष्ण हुई है। भाववाची को, जैसे गुलामी, रक्षा, मौका, पराजय, उन्नति, नौकरी, योजना, मुठभेड़, इतिहास, इच्छा, आशा, मुआवजा, खतरा, मान्यता, भविष्य, इर्ष्या, रहस्य आदि को, बिना किसी लालित्य या नाटकीयता का सहारा लिये, और निरे रोजमर्रा को कुछ अलग ढंग से देखने की कोशिश में रघुवीर सहाय जैसा सच-ठोस-सजीव बनाते हैं, वह एक बार फिर सिद्ध करता है कि उनके यहाँ जीने की सघनता और शिल्प की सुघरता में कोई फाँक नहीं थी।
कविता जीने का, इसके आशयों को आत्मसात करने और सोचने का ढंग है-कविता जीवन का दर्शन या अन्वेषण या उसकी अभिव्यक्ति नहीं है-वह जीवन है उससे तदाकार है। कविता अपने विचार बाहर से उधार नहीं लेती बल्कि खुद सोचती है, अपनी ही सहज-कठिन प्रक्रिया से अपना विचार अर्जित करती है-रघुवीर सहाय की कविताएँ कविता की वैचारिक सत्ता का बहुत सीधा और अकाट्य साक्ष्य हैं। हिंदी के विचार-प्रमुख दौर में इस कविता-वैचारिकता का ऐतिहासिक महत्त्व है।
इस संग्रह में पहले के संग्रहों की छोड़ दी गयी कुछ कविताएँ भी शामिल हैं और इस तरह यह संग्रह रघुवीर सहाय की कविता की यात्रा को पूर्ण करता है। अपनी मृत्यु के बाद भी रघुवीर सहाय लगातार तेजस्वी और विचारोत्तेजक उपस्थिति बने हुए हैं। उनका एक समय था पर आज ऐसे बहुत से हैं जो मानते हैं कि हिंदी में सदा उनका समय रहेगा।
– अशोक वाजपेयी
Additional information
Authors | |
---|---|
Binding | Hardbound |
ISBN | |
Pages | |
Publishing Year | 2022 |
Pulisher | |
Language | Hindi |
Reviews
There are no reviews yet.