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Description
घर का रास्ता
मंगलेश डबराल की कविता में रोज-मर्रा जिंदगी के संघर्ष की अनेक अनुगूँजें और घर-गाँव और पुरखों की अनेक ऐसी स्मृतियाँ हैं जो विचलित करती हैं। हमारे समय की तिक्तता और मानवीय संवेदनों के प्रति घनघोर उदासीनता के माहौल से ही उपजा है उनकी कविता का दुख। यह दुख मूल्यवान है क्योंकि इसमें बहुत कुछ बचाने की चेष्टा है। कविता की एक भूमिका निश्चय ही आदमी के उन ऐंद्रीय और भावात्मक संवेदनों को सहेजने की भी है जिन्हें आज की अधकचरी और कभी-कभी तो मनुष्य-विरोधी राजनीति और एक बढ़ती हुई व्यावसायिक दृष्टि लगातार नष्ट कर रही है। प्रकृति के साथ मनुष्य के संबंधों पर भी एक हिसाबी-किताबी दृष्टि का ही क़ब्जश होता जा रहा है।
मंगलेश की कविता पेड़ को ‘करोड़ों चिड़ियों की नींद’ से जोड़ती हुई जैसे इस तरह के क़ब्ज के खि़लाफ़ ही खड़ी है। महानगर में रहते हुए मंगलेश का ध्यान जूझती हुई गृहस्थिन की दिनचर्या, बेकार युवकों और चीजशें के लिए तरसते बच्चों से लेकर दूर गाँव में इंतजशर करते पिता, नदी, खेतों और ‘बर्फ़ झाड़ते पेड़’ तक पर टिका है। उनकी नजश्र उस अघाये हुए वर्ग के बीच जाकर बेचैन हो जाती है जो सब कुछ को बाजशर-भाव के हवाले करने पर तुला है। मंगलेश की कविता के शब्द करुण संगीत से भरे हुए हैं। इनमें एक पारदर्शी ईमानदारी और आत्मिक चमक है। लेकिन उनकी कविता अगर हमारे समय का एक शोकगीत है तो आदमी की जिजीविषा की टंकार भी हम उसमें सुनते हैं और उसमें स्वयं अपनी निजी स्थिति का एक साक्षात्कार भी है। बहुत सामान्य-सी लगने वाली चीजशें का मर्म भी मंगलेश की कविता इस तरह खोलती है कि उसमें से एक पूरी दुनिया झाँकने लगती है। ‘माचिस की तीली बराबर रोशनी’ इसी तरह की एक पंक्ति है।
दरअसल घर का रास्ता की एक से दूसरी कविता तक हमें अनुभवों, बिंबों और जीवन-स्थितियों का एक ऐसा संसार मिलेगा कि हम रह-रहकर पहचानेंगे कि यह तो हमारा कितना अपना है।
– प्रयाग शुक्ल
Additional information
Authors | |
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Binding | Paperback |
ISBN | |
Language | Hindi |
Pages | |
Publishing Year | 2022 |
Pulisher |
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