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गोबरगणेश
‘‘…‘गोबरगणेश’ को पढ़ते हुए मुझे अपनी सुध-बुध बिसर गई। यह अनुभव मुझे सबसे प्रिय और सुखद होता है। जिस रचना से वह धन्यता मिले, उसे धन्य ही कह सकता हूँ। नहीं तो क्या !’’
— जैनेन्द्र कुमार
‘‘…‘गोबरगणेश’ इस बार कुमाऊँ यात्रा में साथ ले गया और वहीं उसे पूरा पढ़ आया। उपन्यास मुझे अच्छा लगा और उस परिवेश में उसे पढऩा और भी अच्छा लगा। उससे कुछ ही पहले मनोहरश्याम जोशी का ‘कसप’ भी पढ़ा था। इसलिए कुमाऊँ का एक कंट्रास्टिंग चित्र भी सामने रहा। इससे पढ़ने में एक विशेष प्रकार का आनन्द आया। सोचता हूँ कि ‘गोबरगणेश’ के बारे में कुछ लिखूँ…’’
— अज्ञेय
‘‘…विनायक के अनेक दोस्त उपन्यास में अपनी अलग पहचान तो बनाते ही हैं, साथ ही उनके माध्यम से एक उत्तर-भारतीय कस्बे के सामाजिक जीवन की अनेक परतें अपने बुनियादी अन्तर्विरोधों के साथ उद्घाटित हुई हैं, जिनकी बहुआयामिता सचमुच प्रभावी है।…‘गोबरगणेश’ की भाषा और दृष्टि में, विशेषकर पहले खंड में, बहुत दूर तक एक कवि-उपन्यासकार की संवेदना की छाप मिलती है। यह बात उसे हिन्दी कथाकारों की एक खासी लम्बी और बड़ी परम्परा से जोड़ती है, जिसमें जयशंकर प्रसाद, अज्ञेय, नरेश मेहता, धर्मवीर भारती, मुक्तिबोध आदि अनेक लोग हैं।…’’
— नेमिचन्द्र जैन [जनान्तिक, पृ. 106-07]
‘‘…विनायक की यह दुनिया चार्ल्स डिकेंस के पिप या ओलीवर या डेविड कॉपरफिल्ड के बचपन की दुनिया है—काल्पनिक, पर अनुभूत; आत्यन्तिक, पर विश्वसनीय—इन्द्रधनुषी मानवीय ऊष्मा लिये, वास्तविक यथार्थ से कहीं ज्यादा यथार्थ, कहीं ज्यादा संवेद्य। इस दुनिया के अन्न-जल से पला-पुसा विनायक वास्तविक जीवन-समर में प्रवेश करते ही जटिलता की चट्टान से टकराकर बिखरने लगता है…’’
Additional information
Authors | |
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ISBN | |
Binding | Paperback |
Language | Hindi |
Pages | |
Publishing Year | 2016 |
Pulisher |
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