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Description
गोसाई बागान का भूत
किशोर पाठकों मे बेहद लोकप्रिय शीर्षेन्दु मुखोपाध्याय ने कई रोचक पुस्तकें लिखी हैं। उनकी नई पुस्तकों के इन्तजार में भी बड़ा मजा आता है। ऐसे ही मजेदार और रोमांचक कारनामों से भरपूर गोसाईं बागान का भूत उपन्यास एक ऐसी रोचक कृति है जो एक बार हाथ आयी नहीं कि पाठक इसे पढ़े बिना मानेंगे ही नहीं। इसमें लेखक से कई सवाल पूछे गये हैं जिनमें पहला यह था कि क्या भूत सचमुच इतने परोपकारी होते हैं ? दूसरे, भूत अगर राम नाम से इतना डरते हैं तो इस उपन्यास के एक भूत का नाम निधिराम क्यों रखा गया ? लेखक का मानना है कि नाम में राम लगाना और राम का नाम लेना दोनों अलग-अलग बातें हैं। तीसरा सवाल यह कि साँप का जहर क्या खुद साँप पर असर करता है ? अगर करता है तो राम वैद्य जी का नाम सुनकर भूत क्यों भाग जाते हैं ? वह भी तो एक नाम ही है। दरअसल वैद्य जी के नाम में विशुद्ध राम हैं। इसके आगे-पीछे कुछ भी नहीं लगा। भूतों के मन को समझना बहुत कठिन हैः कभी वे राम नाम सुनकर काँप उठते हैं तो कभी किसी राम की परवाह नहीं करते । अब अगर कोई भूत अनजाने में राम वैद्यजी का नाम ले ही ले तो हम क्या कर सकते हैं ? भूतों से भी गलती हो सकती है।
मामला बड़ा पेचीदा था-इसलिए कोई फेरबदल किये बिना अपनी तमाम गड़बड़ियों के साथ यह उपन्यास सबके सामने है। अगर किसी पाठक को कहीं कोई ऐसा परोपकारी भूत मिल जाए तो सच्चाई का पता और सवालों का जवाब मिल सकता है।
1
वार्षिक परीक्षा में गणित के पर्चे में सिर्फ़ तेरह नम्बर पाकर बुरुन बिल्कुल बेवकूफ समझ लिया गया। जहाँ उसे इतिहास में अस्सी, बाङ्ला भाषा पर पैंसठ और अंग्रेज़ी में साठ नम्बर मिले थे, वहाँ गणित में सिर्फ़ तेरह।
हेडमास्टर सचिन सरकार बरीसाल के रहनेवाले थे। वे जितने रोब-दाब वाले थे उतने ही क्रोधी थे। मगर वे अपने विद्यार्थियों को बिल्कुल नहीं पीटते थे। लेकिन अपने कमरे से निकलकर उनके बरामदे में खड़े होते ही स्कूल में सुई गिरने की आवाज़ सुनाई देने वाला सन्नाटा छा जाता था। अपने स्कूल के हर विद्यार्थी को वे अच्छी तरह जानते थे, उन सबके नाम-धाम अचार-व्यवहार, स्वास्थ वगैरह की सारी बातें उन्हें मुँहजबानी याद रहती थीं।
परीक्षाफल निकल जाने के बाद उन्होंने बुरुन को बुलाकर कहा, ‘‘जिस लड़के को गणित नहीं आती, वह बड़ा होकर क्या बनता है, जानते हो ? बेहिसाबी, ख़र्चीला और अव्यावहारिक। गणित की शिक्षा आदमी की नींव को मजबूत करती है। मन को निर्मल बनाती है और विचार-शक्ति को स्पष्ट। बेकार की भावुकता में कमी आती है। इसलिए जो लड़का गणित की पढ़ाई में मेहनत नहीं करता, उसे मैं अच्छा लड़का नहीं समझता।’’
घर लौटने के बाद पिताजी ने बुरुन को अपने कमरे में बुलाया। वे बहुत गम्भीर व्यक्ति थे। अच्छे डॉक्टर होने के कारण वे बड़े लोकप्रिय थे, इसलिए व्यस्तता भी काफ़ी थी। अपने बच्चों की खोज-ख़बर लेने का भी उन्हें समय नहीं मिलता था। कहा जाए तो अपने बच्चों से वे बहुत कम बातचीत करते थे। ज़रूरत न पड़े तो लगातार सात-आठ दिन तक वे किसी से बात ही नहीं करते थे। इसलिए बुरुन और उसके भाई-बहन अपने पिता को एक रहस्यमय व्यक्ति समझते थे। उनके सामने पड़ने से वे कतराते थे।
बुरुन जब अपने पिताजी के कमरे में गया तब वे खिड़की के पास रखी आरामकुर्सी पर बैठे थे। वे अपने कपड़े वगैरह पहनकर गले में स्टेथेस्कोप लटकाकर तैयार थे। यानी अब वे रोगियों को देखने के लिए निकलने ही वाले थे। बुरुन के कमरे में घुसते ही पिताजी ने हाथ बढ़ाकर कहा, ‘‘अपनी प्रोग्रेस रिपोर्ट दिखाओ।’’
बुरुन ने डरते-डरते एक तहाया हुआ काग़ज़ हाथ में देते ही उसके पिताजी अपने माथे पर बल डालकर खीझते हुए उसके नम्बरों को देखने लगे। इसके बाद उस काग़ज़ को लौटाते हुए बोले, ‘‘मैं भी अपनी पढ़ाई के समय गणित में बहुत अच्छा नहीं था। लेकिन अस्सी नम्बर भले ही न मिलते, चालीस-पचास मिलने में कोई दिक्कत नहीं होती थी।’’
बुरुन की निगाहें नीची हो गयीं।
पिताजी ने उठते-उठते कहा, ‘‘कल से कराली मास्टर साहब के यहाँ गणित की पढ़ाई के लिए जाना शुरू कर दो। वहाँ तक रोज़ पैदल जाओगे और पैदल ही वापस लौटोगे।’’
कराली मास्टर साहब वहाँ से ढाई मील दूर कामराडाँगा में रहते थे। वे रोज़ वहाँ से साइकिल पर स्कूल आते थे। गणित के अध्यापक के रूप में उनका खूब नाम था। कहा जाता है कि वे खाना खाने के बाद बैठे-बैठे जूठी थाली में अपनी उँगली से गणित लगाया करते थे। गणित के बड़े-बड़े सवालों का सपना देखते थे। लोग जिस तरह-कहानी उपन्यास की किताबें पढ़ते हैं, कराली सर ठीक उसी तरह गणित की किताबें पढ़ते थे। लोग जिस तरह दुःख की कहानियाँ पढ़कर रोते हैं, हँसी की कहानी पढ़कर हँसते हैं, भूत की कहानी पढ़कर रोमांचित होते हैं, कराली सर भी उसी तरह गणित की मोटी-मोटी किताबें पढ़ते-पढ़ते कभी ठठाकर हँस पड़ते थे, कभी रोते-रोते अपने आँसू पोंछने लगते थे और कभी गणित का गलत सवाल देखकर डर से सिहरकर ‘राम-राम-राम’ करने लगते थे। मगर वे स्वभाव के बड़े भुलक्कड़ थे। अपने विद्यार्थियों में से किसी का भी नाम उन्हें याद नहीं रहता था। किसी के घर में दावत खाने के बाद अगर कोई उनसे पूछता, ‘‘कराली बाबू, रोहू मछली कैसी बनी थी ?’’
Additional information
Binding | Paperback |
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ISBN | |
Language | Hindi |
Publishing Year | 2019 |
Pages | |
Pulisher | |
Authors |
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