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Description
हँसते निर्झर, दहकती भट्ठी
देश-विदेश में, नगरों में और प्रकृति के प्रांगण में जब-जब भी और जहाँ-जहाँ भी मुझे की यात्रा करने का अवसर मिला है, उस सबकी चर्चा मैंने प्रस्तुत पुस्तक में की है। इसमें जानकारी देने का प्रयत्न इतना नहीं है, जितना अनुभूति का वह चित्र प्रस्तुत करने का है, जो मेरे मन पर अंकित हो गया है। इन अर्थों में ये सब चित्र मेरे अपने है। कहीं मैं कवि हो उठा लगता हूँ, कहीं दार्शनिक, कहीं आलोचक, कहीं मात्र एक दर्शक। मैं जानता हूँ कि हुआ मैं कुछ नहीं हूँ। मुझे मात्र दर्शक रहना चाहिए था, लेकिन मन की दुर्बलता कभी-कभी इतनी भारी हो उठती है कि उससे मुक्त होना असंभव हो जाता है। शायद यही किसी लेखक की असफलता है। मेरी भी है। लेकिन एक बात निश्चय ही कही जा सकती है कि इस पुस्तक में विविधता की कमी पाठकों को नहीं मिलेगी। कहीं विहँसते निर्झर, मुस्कराते उद्यान उनका स्वागत करेंगे तो कहीं विगत के खंडहर उनकी ज्ञानपिपासा को शांत करेंगे, कहीं उन्हें भीड़ के अंतर में झाँकने की दृष्टि मिलेगी तो कहीं नई सभ्यता का संगीत भी वे सुनेंगे। वे पाएंगे कि कहीं वे मेरे साथ कंटकाकीर्ण दुर्गम पथों पर चलते-चलते सुरम्य उद्यानों से पहुँच गए हैं, कहीं विस्तृत जलराशि पर नावों में तैर रहे हैं, कहीं पृथ्वी के नीचे तीव्रगामी रेलों से दौड़ रहे हैं तो कहीं वायु के पंखों पर सवार होकर विद्युत और मेघों द्धारा निर्मित तूफान को झेल रहे है। मुझे विश्वास है कि इससे जो अनुभूति उन्हें प्राप्त होगी, वह निरी निराशाजनक ही न होगी।
—विष्णु प्रभाकर
Additional information
Authors | |
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Binding | Hardbound |
ISBN | |
Language | Hindi |
Pages | |
Publishing Year | 2012 |
Pulisher |
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