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Description
हजारीप्रसाद द्विवेदी संचयिता
“मेरे विचार में हजारीप्रसाद जी की यह सबसे महत्त्वपूर्ण देन थी-एक आधुनिक भारतीय किस दुर्गम रास्ते से अपनी खंडित चेतना का अतिक्रमण कर सकता है, अपनी जातीय स्मृति की सलवटों से उस देवता की मूर्ति निकाल सकता है, जिस पर पिछले दो सौ वर्षों से इतिहास की गर्द जमा होती गई है, जो मूर्ति भी है और आइना भी, जिसमें वह अपने से साक्षात्कार करता है। वह सही अर्थ में आधुनिक थे, क्योंकि वह अतीत की सब छलनाओं और इतिहास की मरीचिकाओं से मुक्त थे-वह सही अर्थ में हिन्दू भी थे-ऐसे ब्राह्मण-जिन्होंने हिन्दुत्व की बहुविध प्रेरणाओं से मनुष्य का सत्त्व निचोड़ा था। आधुनिकता और हिन्दुत्व इन दोनों के मेल से वह प्रामाणिक अर्थ में भारतीय वने थे। उनकी दृष्टि में भारतीयता वर्तमान के पासपोर्ट पर कोई बनी बनाई विरासत नहीं थी, जिसे हम अतीत से पा लेते हैं-वह एक ऐसा मूल्य थी, जिसे हर पीढ़ी को अपने समय में अर्जित करना पड़ता है।”
(कला का जोख़िम, निर्मल वर्मा, 1984, पृ. 30)
डॉ. राधावल्लभ त्रिपाठी ने हजारीप्रसाद द्विवेदी के विपुल साहित्य से एक प्रतिनिधि संचयन तैयार किया है जिसमें उनका परम्परा-विवेक और सावधान आधुनिक दृष्टि विन्यस्त है। इससे निश्चय ही द्विवेदीजी की एक सही और मुकम्मिल तस्वीर खड़ी हो पाएगी और पाठक उनके सम्पूर्ण कृतित्व की ओर उन्मुख हो पाएंगें।
Additional information
Authors | |
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Binding | Hardbound |
ISBN | |
Language | Hindi |
Pages | |
Publishing Year | 2010 |
Pulisher |
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