Hindutva Ke Panch Pran

-11%

Hindutva Ke Panch Pran

Hindutva Ke Panch Pran

90.00 80.00

In stock

90.00 80.00

Author: Savarkar

Availability: 5 in stock

Pages: 128

Year: 2018

Binding: Paperback

ISBN: 0

Language: Hindi

Publisher: Hindi Sahitya Sadan

Description

हिन्दुत्व के पंच प्राण

प्राक्कथन

हिन्दूराष्ट्रवाद के विभिन्न अंगों एवं पहलुओं का विस्तृत विवेचन करने वाले बृहदाकार ग्रंथों की रचना वीरजी की प्रभावी लेखनी ने कर रखी है। इन ग्रंथों के सृजन के अतिरिक्त निबंधों के रूप में प्रकाशित उनका साहित्य सम्भार भी विशाल है। समय-समय पर हम प्रचलित समस्याओं पर मर्मग्राही लेखों का लेखन वीरजू ने किया है और जागरूक तथा निर्भीक प्रकाशकों ने अपनी पत्र-पत्रिकाओं में उन्हें प्रकाशित भी किया है, जिसमें वैचारिक आन्दोलन भी उत्पन्न हुए हैं। उसी लेखन में ये निबन्ध लिखे गये थे, जिन्होंने हिन्दूराष्ट्र के विभिन्न अंगों एवं पहलुओं पर प्रखर प्रकाश डाला है और एक ऐसा आन्दोलन उत्पन्न किया है कि जिसके परिणामस्वरूप जहाँ एक ओर हिन्दूराष्ट्र का स्वरूप बहुतांश में स्पष्ट हो जाने के कारण हिन्दू-राष्ट्रवाद को एक यथार्थवाद का रूप प्राप्त हुआ और प्राप्त हुए अनुयायी भी अपने ध्येयवाद के प्रति जागरूक एवं स्पष्ट धारणा रखने लगे, वहीं दूसरी ओर विरोधियों ने तथा शत्रुओं ने भी अपने-अपने मोर्चे बाँध लिये। और इस प्रकार राष्ट्रीय-स्वतंत्रता-संग्राम में हिन्दूराष्ट्रवाद एक प्रखर प्रत्याशी की भाँति अपना स्थान पा सका।

वीरजी के अनगिनत निबन्धों के विभिन्न संकलन वर्तमान शताब्दियों के पूर्वार्ध में मराठी भाषा में प्रकाशित हो चुके हैं, यह पुस्तक भी उन्हीं संकलनों में से एक है। हिन्दी-जगत् वीरजी के लेखन से पूर्व से ही परिचित है, उनके साहित्य का हिन्दी में अब पुनर्प्रकाशन हो रहा है, यह स्पष्ट प्रमाण है कि जनता उसके द्वारा हेतुत: दुर्लक्षित द्रष्टा का मूल्य विलम्ब से क्यों न हो-उनके निर्वाण के पश्चात् क्यों न हो, पर समझ गई है। इस प्रकार ये तो केवल पुनरारम्भ मात्र ही माना जा सकता है जो सुचिह्न भर निश्चिन्त है।

प्रस्तुत संकलन-‘‘हिंदुत्व के पंच प्राण’’ अपने शीर्षक को पूर्णत: सार्थक करता है। जिस प्रकार मानव के जीवित रहने हेतु पंच प्राणों की आवश्यकता को विवाद्य नहीं माना जा सकता, उसी प्रकार राष्ट्र-जीवन के हेतु वीरजी द्वारा इन लेखों में प्रतिपादित तत्त्व भी विगत तीस-पैंतीस वर्षों के समय की अग्नि परीक्षा में प्रतप्त होकर, रस रूप होकर, शोधित हो जाने के कारण किसी भी प्रकार विवाद्य नहीं माने जा सकते। प्रस्तुत पुस्तक में संग्रहित वीरजी के नौ छोटे-बड़े हिन्दूराष्ट्र का एवं उक्त हिन्दूराष्ट्र को प्रस्थापित करने की दिशा का साग्र परन्तु संक्षिप्त दर्शन है। ‘‘हिन्दुत्व के पंच प्राण’’ रूप में वर्णित इन एकादश लेखों में (अ) प्रथम लेख हिन्दुत्व की अकाट्य व्याख्या को संक्षेप में प्रस्तुत करता है। यह लेख हिन्दूराष्ट्रद्रष्टा वीरजी द्वारा लिखित हिन्दुत्व नामक राष्ट्रीय दर्शन ग्रन्थ का एक लघु रूप है-सारांश है।

(आ) तृतीया, चतुर्थ, सप्तम्, अष्टम एवं दशम लेखों में प्रबल हिन्दूराष्ट्र के निर्माण हेतु हिन्दूसंगठनरूपी स्वराज्यसाधक साधन की अत्यावश्यकता का, संख्याबल की महत्ता का, न्याय तथा राष्ट्रहित की दृष्टि से अछूतोद्धार का, जन्मजात जातिवाद की समाप्ति का विश्लेषण कर साहसिक प्रतिपादन किया है। (इ) द्वितीय लेख में हिन्दी राष्ट्रभाषा के शुद्धत्व के विचार को प्रस्तुत कर हिन्दुस्थानी-भाषावादी के तर्कों का निराधार तथा राष्ट्रघातक सिद्ध किया है। (ई) षष्ट लेख में हिन्दुओं की, धर्म-भ्रष्टता संबंधी भ्रान्त के धारणा तथा ईसाई एवं इस्लामियों द्वारा उससे उठाये जाने वाले अनुचित लाभ को संक्षेप में बताकर शुद्धि के महत्त्व का प्रतिपादन किया है। (उ) तथा पंचम, नवम् एवं एकादश लेखों में अहिंसा के अत्यन्त विवादपूर्ण विषय के संबंध में अत्यन्तिक-अहिंसा एवं सापेक्ष-अहिंसा के अर्थें को समझाकर परिस्थितिवशात् शस्त्रप्रयोग की आवश्यकता का महत्त्व प्रतिपादित किया है, वैसे ही प्रतिघात, प्रतिशोध के संबंध में जीवमात्र में होने वाली प्रतिशोध-भावना का विवेचन कर, उसके लिए धर्म का आधार बताकर, स्वार्थ के लिए नहीं तो परमार्थ के लिए ही प्रतिशोध किस प्रकार आवश्यक है इस बात की विवेचना की है।

प्रस्तुत पुस्तक में संकलित अधिकतर लेख 1937 के पूर्व तब ही लिखे गये हैं एवं मराठी साप्ताहिक श्रद्धानन्द तथा मासिक पत्रिका सह्याद्रि आदि में प्रकाशित भी हो चुके हैं जब अन्दमान की भयंकर यातनाओं को सहने के पश्चात् महाराष्ट्र के रत्नागिरि नामक स्थान पर वीरजी को स्थानबद्ध कर रखा गया था। 1937 में कर्णावती (अहमदाबाद) में सम्पन्न अखिल भारतीय हिन्दू महासभा के 19 वें वार्षिक अधिवेशन की अध्यक्षता वीरजी ने की और धार्मिक, सामाजिक-सांस्कृतिक क्षेत्र में विशेष रूप से प्रकट एवं प्रभावी रूप से राजनीति के प्रांगण में उपस्थित कर समय की अति तीव्र माँग को पूर्ण किया उसके लिए बिना हुआ सैद्धान्तिक-आधार ‘हिन्दुत्व के पंच प्राण’ यही था। इसी प्रकार वीरजी के प्रवेश से हिन्दू महासभा को मानो कायाकल्प ही हुआ। क्योंकि, अपनी प्रखर प्रज्ञा, प्रभावी प्रस्तुतीकरण, प्रबोधक प्रवदन आदि के माध्यम से अपने प्रगल्भ, प्रगमनशील हिन्दूराष्ट्रवाद का एवं उसके निर्माण हेतु प्रभावी हिन्दू संगठन के प्रगहण का; संख्याबल के प्रबलीकरण का…..जातिभेद, आत्यन्तिक अहिंसा आदि के प्रवज्यम का; धर्मभ्रष्ट एवं राष्ट्रभाषा की शुद्धि के प्रवर्तन का; तथा प्रथर्षक के प्रतिहरण हेतु प्रतिघात के-प्रतिशोध के साग्र दर्शन का अमृत-प्रसाद हिन्दू महासभा को वीरजी से सदा ही प्राप्त होता रहा।

वीरजी में जहाँ एक ओर साहित्य-सागर के निर्माण एवं विस्तार की कीमिया थी वहीं दूसरी ओर उस सागर को गागर में भरने की माया भी उन्हें सिद्ध थी इस वास्तविकता का अनुभव इस पुस्तक के पठन से पाठकों को अवश्य ही आयेगा ऐसा हमें विश्वास है। इस विश्वास के साथ ही इस आशा को रखते हुए कि हिन्दूराष्ट्र के उक्त पंच प्राणों का पठन-मनन कर हिन्दूराष्ट्र को वर्धिष्णु एवं विजयिष्णु बनाने का संकल्प यह हिन्दू समाज करेगा, हम प्रस्तुत प्राक्कथन को पूर्ण करते हैं।

Additional information

Authors

Binding

Paperback

ISBN

Language

Hindi

Pages

Publishing Year

2018

Pulisher

Reviews

There are no reviews yet.


Be the first to review “Hindutva Ke Panch Pran”

You've just added this product to the cart: