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Description
ईश्वर की आँख
दरअसल हम जिस शताब्दी के अन्त में हैं, उस शताब्दी की सारी नाटकीयताएँ अब ख़त्म हो चुकी हैं। हम ग्रीन रूम में हैं। अभिनेताओं का ‘मेकअप’ उतर चुका है। वे बूढे जो दानवीर कर्ण, धर्मराज या किंग लियर की भूमिका कर रहे थे अब अपने मेहनताने के लिए झगड़ रहे हैं। वे अभिनेत्रियाँ जो द्रोपदी, सीता, क्लियोपेट्रा या आम्रपाली का रोल कर रही थीं, अपनी झुर्रियाँ ठीक करती हुई ग्राहक पटा रही हैं। आसपास कोई अख़्मातोवा या मीरा नहीं है। कोई पुश्किन, प्रूस्त या निराला नहीं है। देखो उस खद्दरधारी गाँधीवादी को, जो संस्थानों का भोज डकारता हुआ इस अन्यायी हिंस्र यथार्थ का एक शान्तिवादी भेड़िया है। ‘सरोज स्मृति’ या ‘राम की शक्तिपूजा’ की काव्य संरचना में अंतर्याप्त रचनाकार की अशक्त, निहत्थी और निपट असहाय अवस्थिति कहीं नहीं दिखती। ब्रूनो शुल्त्जक्र की स्ट्रीट ऑफ क्रोकोडायल्स’ और ‘सैनिटोरियम अंडर द साइन ऑफ ऑवरग्लास’ का या काफ्क्रका का कई कहानियों का असंगत और लगभग अर्द्धमूर्च्छा की दशा में पहुँचा सृजनात्मक लेकिन यंत्रणाग्रस्त मानस यहाँ नहीं है। यहाँ वह अंतर्द्वद्व भी नहीं है, जो ‘अँधेरे में’ या ‘ब्रह्मराक्षस’ के मुक्तिबोध को हिन्दी का मिल्टन बनाता है। यह एक संक्रांत काल है। लेखक का भाषा से, वक्ता का वक्तृता से, कर्ता का कर्म से विच्छेद हो चुका है। नतीजा है परम स्वतंत्रता। कथनी और करनी का चरम अलगाव। लेखन भी राजनीति या व्यापार की तरह ताकत हासिल करने का एक माध्यम है। लेखक के रूप में अब मिडिल स्कूल में मुदर्रिसी करने वाले मुक्तिबोध नहीं, ‘पॉवर मांगर्स’ टहल रहे हैं।
Additional information
Authors | |
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Binding | Hardbound |
ISBN | |
Language | Hindi |
Pages | |
Publishing Year | 2017 |
Pulisher |
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