Ishwar Prapti Ke Dwar

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Ishwar Prapti Ke Dwar

Ishwar Prapti Ke Dwar

80.00 79.00

In stock

80.00 79.00

Author: Swami Avdheshanand Giri

Availability: 5 in stock

Pages: 192

Year: 2016

Binding: Paperback

ISBN: 9788131010563

Language: Hindi

Publisher: Manoj Publications

Description

ईश्वर प्राप्ति के द्वार

ईश्वर के अस्तित्व को लेकर प्रारंभ से ही अलग-अलग धारणाएं हैं। कुछ लोगों में इसके रूप-स्वरूप के संबंध में मतभेद हैं-जैसे कि यह सगुण है या निर्गुण, साकार है या निराकार। लेकिन कुछ इसे मनुष्य के मस्तिष्क की कल्पनामात्र बताते हैं। इनके अनुसार, कुछ लोगों ने समाज में अपना वर्चस्व साबित करने के लिए ईश्वर का भय लोगों में बैठाया और स्वयं को ईश्वर का सीधे प्रतिनिधि माना। ऐसे लोगों ने राजसत्ता हासिल की, लोगों पर मनमानी की और अपने लिए सांसारिक सुख-सुविधा के सभी साधन जुटाए। इस पर प्रतिक्रिया हुई और लोगों ने धर्म को एक उन्माद के रूप में देखा। कार्लमार्क्स ने जब धर्म की अफीम के रूप में घोषणा की तब उसके पीछे यही चिंतन काम कर रहा था।

भारतीय चिंतनधारा के संदर्भ में यदि उपरोक्त को आंका जाए, तो ईश्वर की आड़ में अपने स्वार्थों को सिद्ध करने वाले की यहां भर्त्सना ही की गई है। ईशावास्योपनिषद् के मंत्र का यह कथन-मा गृधः कस्यस्विद्धनम्, दूसरों के हक को छीनने वाले को मानो गृद्ध कह कर उसकी निंदा करता है। उपनिषद् के चिंतन के अनुसार तो प्रकृति के कण-कण में ईश्वर व्याप्त है-यदि और सूक्ष्म दृष्टि से विचार किया जाए, तो वह परम-चेतना, जिसे ब्रह्म कहा गया है तथा जो जगत का कारण है, कार्य रूप में इस सृष्टि से अभिन्न है।

कहते हैं, एक बार किसी संत से किसी ने पूछा, ’’ईश्वर कहां रहता है ?’’ वे संत मौन रहे कुछ क्षण तक, फिर पूछूंने वाले की आंखों में झांक कर पूछने लगे, ’’अरे बाबा ! यह बतलाओ, ईश्वर कहां नहीं है ?’’

इस दृष्टि से कोई कभी नास्तिक हो नहीं सकता। क्योंकि कौन ऐसा है, जो अपने अस्तित्व को नहीं स्वीकार करता।

इसी संदर्भ में तार्किक लोगों के लिए एक मजेदार वार्ता का महत्वपूर्ण अंश उपस्थित है। एक सभा में एक विद्वान ने तर्क दिया, ’’मनुष्य के मस्तिष्क की क्योंकि कल्पना है ईश्वर इसलिए मैं इसे स्वीकार नहीं करता।’’ सभा स्तब्ध हो गई। इतने में एक अन्य विद्वान ने तर्क उपस्थित किया, ’’आप मनुष्य के मस्तिष्क की कल्पना होने के कारण ईश्वर को नहीं मानते। इसका अर्थ हुआ जो भी मानव मस्तिष्क की कल्पना है, उसे आप अस्वीकार करते हैं। इस दृष्टि से तो मानव सभ्यता की प्रगति भी आपके द्वारा अस्वीकार्य है। है न आश्चर्य की बात कि जिसके कारण आप सुख-सुविधाओं के नए-नए साधनों का उपयोग कर रहे हैं, उसे भी स्वीकार नहीं कर रहे हैं। इसके अलावा यह तर्क, जिसे आप दे रहे हैं, किसकी देन है ? तो ठीक है, हम भी आपके इस तर्क को स्वीकार नहीं करते, जो मानव मस्तिष्क की कल्पना है।’’

तर्क की मार दोहरी होती है, इसीलिए भारतीय अध्यात्म ने इसे स्वीकार नहीं किया। ईश्वर का अर्थ है-शासक, जिसके द्वारा समस्त सृष्टि आच्छादित करने योग्य है। उसे पाना नहीं है, अनुभव करना है। इसे ही वेदान्त शास्त्र में अप्राप्त की प्राप्ति नहीं, प्राप्त का अनुभव करना कहा गया है।

परमपूज्य स्वामी अवधेशानंद जी महाराज के व्याख्यानों में ’अद्वैत’ की प्रतिष्ठा का प्रयास है। आपकी भाषा में माधुर्य है, आपकी शैली में प्राचीन और आधुनिकता का अनूठा समन्वय है। अपनी बात को सरल-सुगम रूप में रखने के कारण ही आपको जहां सामान्य श्रद्धालुओं द्वारा सम्मान प्राप्त है, वहीं विद्वानों के शीश भी आपके चरणों पर झुकते हैं।

स्वामीजी की पुस्तकों को प्रभु प्रेमियों ने सहर्ष स्वीकार किया है। इसी श्रृंखला में यह पुस्तक भी जिज्ञासु मन का उचित मार्गदर्शन देगी, ऐसा विश्वास है। ईश्वर प्राप्ति की तड़प आपमें सदैव बनी रहे, यही कामना है।

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Paperback

ISBN

Language

Hindi

Pages

Publishing Year

2016

Pulisher

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