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Description
जगत की रचना
यह जगत एक अत्यन्त आश्चर्यमय, विस्मयजनक और रहस्ययुक्त घटना है। यह कितना बड़ा है, इसमें क्या-क्या पदार्थ हैं, वे पदार्थ कहां कहां है, कैसे बने वे, और कब बने और फिर क्यों बने ? इनका लाभ किसको है, कितना है और कैसे होता है ? ये कुछ प्रश्न हैं, जो आदिकाल से लेकर आज तक के साधारण मनुष्यों तथा विद्वानों को चकित करते रहे हैं।
प्राचीन काल के ऋषि-महर्षि योग-ध्यान से तथा अपनी तपस्या से और वर्तमान युग के वैज्ञानिक इलैक्ट्रानिक दूरबीन, क्षुद्रबीन, फोटोग्राफी, राकेट, द्युलोक में घूमने वाले यानों तथा अनेकानेक उपकरणों की सहायता से जगत के विषय में उक्त व अन्य अनेक संबन्धित विषयों पर खोज करते रहे हैं। इस पर भी, इनका ठीक-ठीक, अपने को भी सन्तोषदायक, उत्तर प्राप्त नहीं कर सके।
आरम्भ काल का मनुष्य जो इस भूतल पर खड़ा होकर आकाश की ओर देखता हुआ अवर्णनीय कौतुक अनुभव करता रहा होगा, उससे आज अपने को उन्नत मन और बड़े-बड़े यंत्रों को रखने का दावा करने वाला मनुष्य कुछ अधिक जानकारी प्राप्त कर चुका है, कहना कठिन है। जानकारी का मार्ग, दोनों के लिए एक सीमा पर पहुँचकर बन्द हो जाता है।
उक्त प्रश्नों को एक दूसरे ढंग पर भी रखा जा सकता है। मैं क्या हूं, कैसे बना हूँ, क्यों बना हूँ, कैसे कार्य करता हूँ और क्यों कार्य करता हूँ ? किसी वस्तु की प्राप्ति के लिए मेरी कामना होती हैं, क्यों ? उस कामना की पूर्ति पर किस को सुख मिलता है और अपूर्ति पर दुख किस को होता है और फिर यह सुख-दुख क्यों होता है ? इस प्रकार के अनेकानेक प्रश्न किसी भी विचारशील मनुष्य के सम्मुख यदा-कदा उपस्थित होते रहते हैं और जब उसको इनके उत्तर नहीं मिलते तो कभी वह चकित होकर इन सबको करने वाले ही अपरम्पार माया अथवा शक्ति का चिन्तन करने लगता है और कभी कोई अधीर हो अपना माथा चट्टान से फोड़ चुप रह जाता है।
एक मनुष्य प्रातःकाल उठता है, स्नान-ध्यान से निवृत्त हो, जल्दी-जल्दी भोजन कर अपने जीविकोपार्जन के काम पर भागा हुआ जाता है। सात-आठ घंटे काम कर घर को लौटता है तो कभी बच्चों की चीं-पीं सुन झुंझलाता हुआ पागलों की भाँति व्याकुल हो उठता है। कभी अपनी पत्नी तथा बच्चों को अपनी आय से प्राप्त सुख-सामग्री देकर आनन्द अनुभव करता है। अगले दिन फिर वही दिन-चर्या का चक्र और फिर वही सुख-दुख की उपलब्धि और इसी प्रकार दिन के बाद दिन, सप्ताह के बाद सप्ताह, महीने, वर्ष और फिर जवानी, बुढ़ापा और अन्त में मृत्यु। विचारशील मनुष्यों के अपने मन में इस चक्की पीसने में कारण जानने की इच्छा होती है और वे स्वयं से पूछते हैं, हम यह क्यों करें ?
परन्तु कभी-कभी कोई यह भी कह देता है, इन सब पर मस्तिष्क खराब करने की क्या आवश्यकता है ? जो मिलता है लो, जो नहीं मिलता, उस पर संतोष रखो; जो जैसा मिलता है, उसको वैसा उसी प्रकार स्वीकार करो। परन्तु देखा जाए तो यह मनुष्य की स्वाभाविक प्रवृत्ति नहीं है। ज्ञान प्राप्त करने की अभिलाषा मनुष्य के अन्तःकरण की विशेषता है।
इस अभिलाषा का होना अकारण भी नहीं है। मनुष्य अपनी इच्छित वस्तु जब नहीं पा सकता तो ये सब प्रश्न उसके मन में उत्पन्न होते ही हैं, जो हमने ऊपर लिखे हैं। जब कोई मनुष्य अपने प्रयत्न का इच्छित अथवा आशा से भी अधिक फल पा जाता है, तो भी वह आश्चर्यचकित हो यही प्रश्न पूछता है, कि यह कैसे हुआ ?
अत: यह माना जाता है कि जगत् में सबसे महान्, सबसे जटिल, सबसे अधिक आश्चर्यजनक, सबसे अधिक विस्मयजनक और सबसे अधिक चकित करने वाला यदि कोई प्रश्न है तो यह है-
यह जगत क्या है ? कैसे हुआ है ? और क्यों हुआ है ?
हमने यह बताया है कि आदि-काल से मनुष्य इस प्रश्न का उत्तर पाने की इच्छा करता रहा और इस आज के काल में भी सब वैज्ञानिक मीमांसक और अन्वेषक इस प्रश्न का उत्तर ढूँढ़ने में लीन हैं।
ऊंचे-ऊंचे पहाड़ों की उच्चतम चोटियों पर चढ़ने में जीवन-भय का सामना किया जाता है; समुद्र की गहराइयों में डुबकी लगाकर निम्नतम तल का ज्ञान प्राप्त करने के लिए लोग जान हथेली पर रख लेते हैं; ध्रुवों के बर्फानी क्षेत्रों में, अफ्रीका तथा दक्षिणी अमरीका के घने जंगलों में लोग जाते हैं और अब तो अन्तरिक्ष यानों पर बैठ चाँद और मंगल आदि ग्रहों पर जाने के लिए मानव लालायित है। यह सब इसी कारण है कि मानव का अन्त:करण अपने विषय में और उस जगत् के विषय में जिसमें वह रहता है, ज्ञान प्राप्त करना चाहता है। यह जिज्ञासा उसके स्वभाव में है। वह इसकी अवहेलना नहीं कर सकता।
इस पुस्तक में स्थानाभाव के कारण इस जगत् के विषय में हम संक्षेप में ही लिख पाएंगे। हमारे लिखने का आधार भारतीय विज्ञान होगा। हां, यत्र-तत्र भारतीय विज्ञान की खोज का आधुनिक विज्ञान की खोज के साथ मिलान भी करते जाएंगे।
हमारा उद्देश्य केवल उपलब्ध ज्ञान को सरल तथा रोचक ढंग से पाठकों के सम्मुख रखना है।
Additional information
Authors | |
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Binding | Paperback |
ISBN | |
Language | Hindi |
Pages | |
Publishing Year | 2001 |
Pulisher |
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