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जाँच पड़ताल
महान रूसी लेखक नि. व्. गोपाल की कालजयी कृति ‘दी गवर्नमेंट इंस्पेक्टर’ पर मूलतः आधारित संजय सहाय का हिंदी नाटक जांच-पड़ताल उस व्यथा और तंत्र के मानव-द्रोही भ्रष्ट चरित्र को परत-दर-परत खोलता है, जिसके बीच हम रहने और जीने के लिए लगभग अभिशप्त हैं। यथार्थ के विचलित कर देनेवाले उत्ताप और तीखे दंश के सहारे यह नाटक कहीं-न-कहीं हमें भी अपनी ही नजरों के आगे परख व् पहचान के लिए खड़ा करता है। एक बेमुरौवत कठघरे में-जहाँ से जीवन-सन्दर्भों की न केवल एक नई कारगर पहचान व् प्रतीति होती है; बल्कि अर्थपूर्ण बदलाव की शुरुआत भी होती है ! भाषा, रूप, चरित्र, अंतर्वस्तु और अर्थध्वनियों के स्तर पर दिक् और काल के अपार आयामों में गूंजती हुई गोगोल की सशक्त कृति के भीतर से सर्जनात्मक अंतर्यात्रा करते हुए ‘जांच-पड़ताल’ के लेखक ने समसामयिक भारतीय संदर्भो में अपरोक्ष अभिप्रायों से लैस एक नई रंग-आकृति रचने-ढालने की कोशिश की है। अनुकृति या अंतरण से भिन्न यह नाट्य-रचना देश, समाज, भाषा और युग के भिन्न संदर्भो में मूल कृति का ही पुनराविष्कार है, जिसमे उनकी अशेष रचनात्मक संभावनाओं का संदोहन है। हम इसे गोगोल की आधारभूत कृति का हिंदी तद्भव कह सकते हैं।
‘जाँच-पड़ताल’ निकोलई वैसिलीविच गोगोल की कालजयी कृति ‘दी गवर्नमेंट इंस्पेक्टर’ पर आधारित नाटक है। सन् 1836 में प्रकाशित इस कृति के शिल्प और लेखकीय दृष्टि से मैं बचपन से प्रभावित रहा हूँ।
अपने देश में इसके जितने अनुवाद या रूपांतरण हुए हैं, संभवतः उतने दूसरे किसी मुल्क में नहीं। कारण साफ हैं। भ्रष्टाचार से ग्रसित-पीड़ित आम भारतीय जन, भिन्न समाजों के निकम्मे व भ्रष्ट व्यवस्थापकों का समान-सा आचरण, और इन परिस्थितियों पर गोगोल द्वारा किया गया इतना सहज और पैना व्यंग्य !
तो फिर एक और ‘संस्करण’ क्यों ?
दो शब्द
‘जाँच-पड़ताल’ में प्रयास किया गया है कि मूल के अलावा नये व्यंग्य प्रसंगों को भी समकालीन तेवर के साथ प्रस्तुत किया जाये और आम-जन की भाषा में सामाजिक मुद्दों, प्रशासनिक कुव्यवस्था और राजनीति के अपराधीकरण पर बहुआयामी प्रहार किया जा सके। अनेक पात्रों-प्रसंगों की मूल संरचना में भी बदलाव लाने का प्रयास किया गया है, और मूल से भिन्न, सत्ता के सर्वोच्च शिखर तक फैले भ्रष्टाचार पर टिप्पणियाँ देने का भी। अप्रासंगिक हो चुके प्रसंगों-पात्रों को अवकाश प्राप्त करा दिया गया है। इस धृष्टता के लिए गोगोल-प्रेमी क्षमा करेंगे। ‘जाँच-पड़ताल’ के बुनियादी ढाँचे की कुछ विशेषताएँ शैलेंद्र के ‘बड़ा साहब’ से भी प्रेरित हैं।
यह तो गुणी पाठक ही बतलाएँगे कि ‘जाँच-पड़ताल’ पाठकीय कसौटी पर कितना खरा उतरता है।
‘जाँच-पड़ताल’ का पहला स्वरूप 1994 में पूर्ण हुआ। 1995 की जनवरी में (नाट्यशाला के अभाव में) कर्क व्यू स्कूल के खुले प्रांगण में चित्रांश कला मन्दिर, गया द्वारा प्रदर्शित किया गया। दो दिनों तक कड़कड़ाती ठंड के बावजूद दर्शक भरे रहे। इसका ढेर सारा श्रेय ‘जाँच-पड़ताल’ के प्रथम निर्देशक श्री ब्रजकिशोर के कौशल को जाता है और नाटक से जुड़ी गया की तीन पीढ़ियों की कलाकारी को।
नाटक की सफलता से प्रभावित श्री विद्यानंद सहाय एवं श्री रवीन्द्र भारती के प्रोत्साहन से पटना में ‘निर्माण कला मंच’ द्वारा इसके सुधरे स्वरूप की चार दिवसीय प्रस्तुति हुई। निर्देशन डॉ. अशोक तिवारी का था। चारों दिन कालिदास रंगालय में भीड़ का सैलाब था। सैकड़ों व्यक्र्ति प्रवेश न पाने की वजह से मायूस घर लौटे।
श्री रवीन्द्र भारती के सौजन्य से ही श्री अशोक माहेश्वरी से संपर्क हुआ और अशोक जी ने ‘जाँच-पड़ताल’ को प्रकाशित करने की सहमति दी। आपको कोटि-कोटि धन्यवाद !
इस नाटक को लिखने के क्रम में जिन मित्रों से बहुमूल्य प्रोत्साहन मिला, उनमें पत्नी दूर्वा सहाय, श्री शैवाल एवं श्री अब्दुल कादिर विशिष्ट स्थान रखते हैं। धन्यवाद !
– संजय सहाय
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Authors | |
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Binding | Hardbound |
ISBN | |
Language | Hindi |
Pages | |
Publishing Year | 2021 |
Pulisher |
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